बदलाव
प्रकृति की गोद में, बादलों की छाँव में लहराती पवन संग मयूर सा थिरकना सुमी को अच्छा लगता है।
बारिश की बूंदों के साथ छई छपा छई करते कूदना, फुदकना उसे अच्छा लगता है।
वह चंचल, शोख हसीना सी चुलबुली, लेकिन राज का स्वभाव उससे अलग, विपरीत, धीर गभीर।
जब देखो दार्शनिक अंदाज, स्थितप्रज्ञ सी स्तब्धता।
” चलो, सिनेमा देखने चलते है। चलो ना…।”
वह मनुहार करती। वह मना कर देता।
“चलो, आज होटल चले?”
” नहीं, नहीं, होटल का तेज मिर्च मसाला –मैं घर खाना ही पसंद करता हूं।”
मित्रों संग देखा था उसे किसी शादी में, रुबाबदार, उंचापुरा राज उसे भा गया था।
लेकिन सोचा भी नहीं था उसने, राज का स्वभाव इतना गंभीर होगा।
रिश्तेदारी में था राज, पट मंगनी, झट शादी हो गयी थी उनकी।
न एक दूजे से खुलकर मिल पाए थे, न साथ साथ समय बिताया था।
दो अजनबी से थे दोनों।
उसे तो घूमना फिरना बहुत पसंद है, अकेली घर में उकता जाती हैं।
“कोई छोटा सा जॉब कर लूं?”
” जी नहीं। माँ को पसंद नहीं।”
“घर में बैठे कुछ कर लूं?”
” ना, ना, हमारे होते जरूरत ही क्या है?”
कौन समझाए? यह सूनापन, अकेलापन डरावना लगता है उसे। सबके साथ घुल-मिल रहना चाहती है वह।
अब उसने कलम कागज का सहारा लिया है। लिखती हैं अपनी पीडा, दर्द, मन की बातें।
ढेर सारे पटल, और पटल मित्र।
जिंदगी मजे से गुजरने लगी। उसका व्यस्त रहना राज को अखरने लगा।
झल्लायी वह, “न खुद खुश रहते हो, ना खुश रहने देते हो।”
“कैसा अजीब इंसान हैं यह? कितना अजीब रिश्ता हैं हमारा।”
” क्यों मैं अपने हिसाब से नहीं जी सकती?” सुमी सोचती।
“क्यों राज अपने आप को इतना असुक्षित महसूस करता हैं?”
निम्मो, उसकी पुरानी सहेली, इसी शहर में आयी हैं। उसके पति का ट्रांसफर यहाँ हुआ हैं। वह भी जानी मानी मनोवैज्ञानिक डॉक्टर हैं। जैसे ही सुमी का मुरझाया चेहरा देखा, समझ गयी।
“बोलो तो सही सुमी, शायद मैं तुम्हारी समस्या सुलझा दूँ। “
आत्मविश्वास के साथ लेकिन स्नेह से कहा उसने, सुमी सुबक पड़ी। बहते रहें आंसूं कुछ देर तक।
“सुमी, थोड़े दिनों के लिए अकेला छोड़ दो राज को। खुश रहने का नाटक करो।
वह तुम्हें इतना प्यार करता होगा कि किसी और से बतियाते,और के साथ मुस्कुराते देखना बर्दाश्त नहीं होता होगा उसे।
“तुम उसकी बीबी हो।”
” चाहता हैं, मेरी ही बीबी बनी रहे।”
” न दोस्ती, न किसी से तुम्हारा और कोई रिश्ता वह चाहता हैं।”
“पीहर जाने देता है?”
“नहीं ना।”सुमी ने धीरे से कहा।
“सुमी, धीरे-धीरे वह संभल जायेगा। थोड़ा सा सबर करो।”
“अपने माँ बाबूजी के झगड़ों से उसके मन में जो डर बैठा हैं, निकलने दो।”
“बहने दो मन का गुबार।”
“इंसान वह बहुत अच्छा हैं।”
पीहर आये सुमी को एक हफ्ता हो गया। राज बार-बार फोन कर उसे आने के लिए कह रहा था।
उसे भी उसकी याद आ रही थी। अनजाने साथ रहते-रहते वह भी उसे चाहने लगी थी।
लेकिन निम्मो ने थोड़ा और रुकने के लिए कहा।
अनमने से उसने उसकी बात मानी।
आज तो राज लेने ही आ गए। देखकर उसका मुरझाया चेहरा खिल उठा। राज का हाथ थाम अपने घर चल पड़ी।
एक दूसरे से अलग रहकर दोनों ने एक दूसरे की अपने जीवन में अहमियत जान ली थी।
अब उसे भी राज की बातें अच्छी लगने लगी थी। कुछ-कुछ राज के स्वभाव में भी बदलाव आया था।
हर घडी किसी न किसी बहाने उसके पास आ जाता। हंसी-मजाक भी करता।
खुद ही होटल, सिनेमा चलने का प्रोग्राम बनाता। हर पल उसे खुश रखने की कोशिश करता।
सुमी रूठती, वह मनाता।
थोड़ी सी सूझबूझ से उनका जीवन खुशियों से भर गया था।