लघुकथा

लघु कथा – आँखें खुल गई

पंडित बैजनाथ जी हर साल की तरह आज दशहरे का प्रोग्राम देख कर घर आये। रावण दहन को वोह शुरू से ही हर वर्ष बड़े चाव से देखते आ रहे थे। जब रावण के पुतले को आग लगाई जाती तो पटाखों की आवाज़ के साथ वोह भरपूर जोर शोर से तालिआं बजाते। रावण से उन्हें घोर नफरत थी कि सीता माता का हरण करके उस ने यह नीच काम क्यों किया था !
आज रात को सोते वक्त भी उनके दिमाग में यह बातें घूम रही थी। जब वो गहरी नींद में सो रहे थे तो उन्हें सपना आया। हाथ में गदा पकड़े दस सर वाला रावण उस के सामने खड़ा था। देख कर बैजनाथ घबरा गया। घबराएं नहीं बैजनाथ जी ! मैं तो बस आपसे यह पूछता हूँ कि हर वर्ष आप मुझे इतना ज़लील क्यों करते हो, हर वर्ष मुझे आग लगा के खुश होते हो, क्या मेरा गुनाह इतना बढ़ा था ? अब बैजनाथ जी को कुछ हौसला हुआ और बोला, ” लंकेश जी ! सीता मैया को उठा कर जो अपराध आप ने किया, वोह भी जानते हुए कि श्री राम जी ने कोई अपराध नहीं किया था, अपराध तो लक्ष्मण ने किया था।
रावण बोला, ” बैजनाथ जी, पहली बात तो यह कि लक्ष्मण ने मेरी बहन का नाक काट कर उसे हमेशा के लिए बदसूरत बना दिया, मेरी बहन का गुनाह कोई नहीं था। माना कि , लक्ष्मण जी विवाहित थे लेकिन उस समय एक शख्स की एक से ज़्यादा पत्नीओँ का चलन था जैसे राम जी के पिता जी दशरथ की थीं, गुस्से में आ कर अपनी बहन का बदला लेने की खातर मैं सीता जी को छल से लंका ले आया लेकिन मैंने सीता जी को हाथ नहीं लगाया और बकायदा एक कैदी की तरह बाटिका में रखा लेकिन बैज नाथ जी ! तुम मुझे हर साल जला कर तो खुश हो लेते हो लेकिन जो आज के भारत में महलाओं, यहाँ तक कि छोटी छोटी बच्चीओं के साथ बलात्कार हो रहे हैं, उन लोगों के पुतले कब जलाओगे ! “
बैज नाथ जी की आँखें खुल गई और घबराए हुए इर्द गिर्द देखने लगे।
— गुरमेल भमरा