हास्य व्यंग्य

सच्चा खिलाड़ी कौन? (व्यंग्य)

देश का धार्मिक वातावरण लगातार सुधर रहा है। मेरे बाप-दादाओं की तुलना में आज के लोग अधिक धार्मिक हो गये हैं। देश में सभी धर्मों के भक्तों की संख्या में भारी विस्फोट हुआ है। परिणामस्वरूप देश भी बड़ी विस्फोटक स्थिति से गुज़र रहा है। सुना था कि सभी धर्म समान होते हैं। एक ही परमात्मा तक पहुँचने के माध्यम होते हैं। धार्मिकता जिन्न भक्तों के सिर पर सवार है। सब भक्त अपने धर्म को दूसरे से जिताने में लगे हैं। भक्तों का धार्मिक-ओलंपिक चल रहा है। इसमें एक ओर पत्थर मार, निशानेबाजी, चाकूबाजी जैसी एकल प्रतियोगिताएँ हैं तो दूसरी ओर दंगा, आगजनी, हत्या जैसे सामूहिक खेल भी शामिल हैं। खिलाड़ियों के लिए किसी विशेष योग्यता की आवश्यकता नहीं। यदि आप बेरोजगार, गरीब, खूंखार, लड़कीबाज, नशेखोर, रूढ़िवादी हैं तो अपने मन पसंद धर्म के धुरंधर खिलाड़ी बन सकते हैं। आप जितने बेशर्म और बेदर्द होंगे, उतनी ही सफलता आपके चरण चूमेंगी। राजनेताओं का वरदहस्त आप पर रहेगा। आप आगे बढ़िए। बाल भी बाँका नहीं होगा। मूर्ख और बेवकूफ बहुत सारे हैं मरने और घायल होने के लिए। परिभाषाएँ बदल गई हैं अब इस देश में – “जाको राखे राजनीतिज्ञ,मार सके ना कोय। बाल ना बाँका कर सके, धर्म बैरी कोई होय।।” धर्म के मार्ग पर चलिए । इससे मोक्ष भी मिल सकता है और हुरें भी। पसंद आपकी। घर में बूढ़े माँ-बाप हों या बीवी-बच्चे! भाई-बहन हो या रिश्तेदार-संबंधी सबको अपने -अपने धर्म के परमात्मा के भरोसे छोड़कर इस धर्म युद्ध में शामिल हो जाइए। जीतोगे तो धरती का सुख मिलेगा। मरोगे तो जन्नत में हुरें रसपान कराएँगी।
लड़ी!मरो!! मरकर अपने कर्तव्य का पालन करो। यही भक्तों धार्मिक शिक्षा है।
मातृभूमि पर सर्वस्व बलिदान करनेवाले विभिन्न धर्मों के देशभक्त पागल थे। कुछ फाँसी को चूम गये। कुछ भूख से तड़प गये लेकिन पानी ना छुआ। कुछ गोली से छलनी कर दिए गये तो कोई दीवानगी में खुद को गोली मार बैठा। कुछ सीना तानकर तोप के सामने दहाड़ बैठे। किसी ने कोल्हू में तेल पेलते हुए अपनी अस्थियों को गला दिया। कुछ मूर्खों की लाशें आज भी सरहद पर से तिरंगे की चादर ओढ़कर आ रही हैं। तो किसी तन से सिर कहाँ कट कर विलुप्त हो गया पता नहीं। ये सब वे बेवकूफ थे जो धार्मिक नहीं थे। पर भक्त थे। ये आरती भी गाते थे और आयात का पाठ भी करते थे। अरदास के साथ बाइबल का पाठ भी करते थे। लेकिन इनके होठों पर अंतिम साँस तक यही कीर्तन होता था -“शान तेरी कभी कम न हो, ऐ वतन – मेरे वतन।”
आज देश में धार्मिक ओलंपिक देखकर मेरी आँखों के आँसू पूछते हैं कि सच्चा खिलाड़ी कौन – ये या वे?

— शरद सुनेरी