अर्धांगिनी
लघुकथा
अर्धांगिनी
वह करवा चौथ का दिन था। सुनीता का शरीर बुखार से तप रहा था। पूरा शरीर दर्द से टूट रहा था। उसके संदीप ने मौसम्मी का रस देते हुए कहा, “पी लो इसे। फिर डॉक्टर के पास चलेंगे।”
सुनीता बोली, “आज मेरा करवा चौथ का व्रत है। इसलिए कुछ भी खा-पी नहीं सकती।”
“कोई बात नहीं। तुम आज व्रत नहीं रखोगी। देखो जरा खुद को, तुम कितनी कमजोर हो गई हो। मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी तबीयत और भी ज्यादा खराब हो।”
“देखिए जी, हमारी शादी को सोलह साल पूरे होने वाले हैं। आज तक बिना नागा मैंने हर साल तुम्हारी लम्बी उम्र के लिए यह व्रत रखा है। चाहे, कुछ भी हो, इस बार भी मैं व्रत तो रखूँगी ही।”
“क्या तुम मुझे हमेशा खुश देखना नहीं चाहती हो ?”
“शुभ-शुभ बोलिए जी, ऐसा क्यों बोल रहे हैं आप ?”
“तुम्हें क्या लगता है कि तुम्हारी ऐसी हालत देख कर मैं खुश रह पाऊँगा ? खुदा न खास्ता यदि तुम्हें कुछ हो गया, तो मेरा और बच्चों का क्या होगा ? सोचा है इस पर कभी ?”
“आप चिंता मत करिए। मुझे कुछ नहीं होगा। व्रत और तीज त्योहार के अपने विधि-विधान होते हैं। उसे मानना ही पड़ता है।”
“हूँ…. तुम मेरी अर्धांगिनी हो। हो ना?”
“हाँ…, इसमें पूछने की क्या बात है ?”
“ठीक है, फिर तुम्हारी बात भी रह जाए और हमारा काम भी हो जाए। हर बार व्रत तुम ही करती हो, इस बार मैं कर लूँगा। व्रत ये अर्धांग करे या वह अर्धांग, बात तो वही है। चलो पियो ये जूस। अब मैं इस पर और डिस्कस नहीं करनया चाहता।”
संदीप की बात मानकर सुनीता ने जूस पी ली। पूरी श्रद्धा से संदीप ने व्रत रखा।
जब शाम को करवा चौथ का चाँद दिखा, दोनों ने मिलकर चाँद को अर्घ्य दिया। दोनों आँखें बंद कर मन ही मन एक-दूसरे की लंबी उम्र की कामना कर रहे थे।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़