स्वयंसिद्धा बनाना होगा…
राधिका अपने सुशील व्यवहार, मृदुल वाणी से सबकी चहेती थी।
माता-पिता की आंख का तारा। दादी मंगला जी को उसका पढना, घुमना, फुदकना बिल्कुल नहीं सुहाता।
मां सुधा और सोमेश जी चाहते वह खूब पढे, निडर हो जिये,
आत्मनिर्भर बने, खुद की सुरक्षा स्वयं कर सके।
आत्मविश्वास से आगे बढे। रिश्तेदार टीका-टिप्पणी करते रहते।
“देखो, कैसे लडकों जैसे कपडे पहनती है?”
” अब इसे ज्युडो कराटे सिखाकर क्या आर्मी में भेजना है?”
“अरे अपनी छोटी को छोटी की तरह रहने दो। छुई-मुई सी बिटिया को आराम से रहने दो।”
कभी-कभी सुधा को लगता हम ज्यादती तो नहीं कर रहे है?
हमें फूल-सी बिटिया को तितली-सा उन्मुक्त, अपनी ही धुन में इतराते, इठलाते,
अठखेलियां करते जीने देना चाहिए?
हमारी लाडली क्यों न पायलियां छनकाती, कंगना खनकाती सामान्य लडकियों सा जीवन जिये?
सोचते-सोचते सुधा बाग में आयी।
बगिया में खिले फूल, लहराते पवन झोंके से मन पुलकित हुआ। बडा-सा बाग घर के बाजू में था।
सुधा चहल कदमी कर रही थी।
रंगबिरंगी तितलियां यहां-वहां घुम रही थी। गुलाब के फूल पर सुंदर तितली बैठी थी।
सुहानी, मन को आकर्षित करती रमणी-सी।
खेलते-खेलते तीन चार बच्चें वहां आये। फूल पर निश्चिंत बैठी तितली को दबे पांव आकर पकड लिया।
नाजुक तितली पंख भी न फडफडा सकी। दूर इतने थे कि वह रोक भी न सकी।
“नहीं, हम गलत नहीं है। हमें हमारी बिटिया को देवी दुर्गा सा शक्तिसंपन्न बनाना है।”
” स्वयंसिध्दा बनाना ही होगा।”
मन की शंका निरस्त हो चुकी थी।
केवल उसे ही नहीं, हर बिटिया को आत्मसुरक्षा के गुर सिखाने होंगे।
मन में दृढ संकल्प ले वह घर लौटी।