उल्टी पड़ी है
जिंदगी को इन दिनो शरारत सूझी है
हर दिन हर लम्हें दर्द बेहिसाब दे रही है
कभी जब भी फुरसत के लम्हे मिलते हैं
परेशानियां मुझे हर तरफ से घेरे खडी हैं
कब तलक होगी सब्र की आजमाइश
सब्र तो न जाने कब से थकी पड़ी है
बहुत सोचा सोच-सोचकर मन थक गया
हालात न बदलने को अड़ी पड़ी है
बहुत सुना है अच्छी सोच का नतीजा अच्छा
लेकिन यहां तो सब कुछ उल्टी पड़ी है ।
— विभा कुमारी “नीरजा”