कविता

सफर की मधुशाला

राहों में मिले हम-तुम,
मंजिलें थीं अलग-अलग।
सफर का था रंगीन मौसम,
पर नजर थी मंजिल पर।

क्षणिक है मंजिल पाना,
पर सफर का आनंद कहां?
अगर न देखें वो घटाएँ,
न करें हृदय रसपान।

मंजिल का क्या फायदा,
जो सफर से दूर करे।
चलो सफर को बना लें,
चलती-फिरती मधुशाला।

पल तो आएगा ही,
जब मंजिलें होंगी पास।
तब तक साथ में चलें,
और सफर का लें मज़ा।

तुम अपनी राह पर चलो,
हम अपनी राह पर चलें,
मिलेंगी मंजिलें जब,
सफर की यादें संग रह जायेंगी।

— अवनीश कुमार गुप्ता

अवनीश कुमार गुप्ता

साहित्यकार, स्वतंत्र स्तंभकार, समीक्षक एवं पुस्तकालयाध्यक्ष पता: प्रयागराज 211008, उत्तर प्रदेश मोबाइल: 8354872602 ईमेल: [email protected]

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