कैसी विडम्बना है ?
बस योजना बनाने की,
होड़ है,
नहीं रूक रहा यह शोर है,
गरीब बेबस है बेखबर,
नहीं हो रहा है,
किसी में कोई असर,
इस इल्म को हासिल कर,
सब आज़ भी हैं,
खोजते हुए खुशियों का शहर।
क्या किसी ने कोई,
बड़ी बाते की हैं,
नज़र अन्दाज़ करना तो,
उन लोगों की नज़र में बस ठीक है।
ग़रीबी बेब्स जिंदगी पर,
कौन सोचता है,
राजनीतिक भागीदारी तय है,
कहां उपेक्षित कुछ सोचता है।
राजनीतिक हथकंडे अपनाए जा रहे हैं,
छोटी सी दुनिया ही,
खुशियां आज़मा रहे हैं।
उपेक्षित वर्ग से ताल्लुक रखने वाले,
क्यों आज़ गांव-गांव में,
घुमने आ रहें हैं।
अब तो बस वोट खरीदें जाएंगे,
बड़ी सी उम्मीद,
बताकर उसे भरमाएंगे।
फिर चुनाव हुआ,
फिर पांच साल तक गुम हुआ।
कौन पूछता है कि,
अब हाल क्या है,
बस बड़ी बड़ी गाड़ियों में सवार होकर,
घुमते रहना ही,
चाह बन गया है।
छोटी छोटी योजनाएं बनाई जा रही है,
भूखमरी और तमाम तरह की झंझावात मन में,
समाई जा रही है।
कोई हमदर्दी नहीं दिखाते है लोग अब,
उन्हें तो पांच वर्षों बाद ही,
गांव और कस्बों में आना है,
लम्बी पहर के बीत जाने पर।
— डॉ. अशोक, पटना