धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

संस्कृति की जड़ों में आधुनिकता की हवा

भारतीय संस्कृति अपने आप में एक गूढ़ और व्यापक धरोहर है, जिसका प्रभाव केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में सदियों से महसूस किया जा रहा है। यह संस्कृति मानवीय मूल्यों, आध्यात्मिकता, नैतिकता, सहिष्णुता और परोपकार जैसे तत्वों का समुच्चय है, जिसने न केवल भारतीय समाज को गढ़ा है, बल्कि दुनिया भर को एक संतुलित और संयमित जीवन जीने की प्रेरणा दी है। चाहे वह योग का विज्ञान हो, जिसमें तन और मन के संतुलन को साधा जाता है, या फिर आयुर्वेद का चिकित्सा पद्धति, जिभारतीयसने प्राकृतिक चिकित्सा के महत्व को सिद्ध किया है—इन सबने विश्व को भारतीयता का अमूल्य उपहार दिया है। भारतीय संस्कृति का आदर्श केवल एक भौतिक समृद्धि नहीं, बल्कि आत्मिक विकास भी है। जैसा कि हमारे प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है, “सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः” अर्थात् सभी सुखी हों, सभी निरोगी रहें। यह श्लोक न केवल भारतीय समाज का आदर्श है, बल्कि यह दुनिया को भी एक संदेश देता है कि मानवता का उद्देश्य व्यक्तिगत लाभ से बढ़कर सर्वजन का कल्याण होना चाहिए। 

लेकिन आधुनिकता और वैश्वीकरण के प्रभाव ने हमारी सांस्कृतिक विरासत को एक नई चुनौती दी है। पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में, खासकर युवा पीढ़ी अपने सांस्कृतिक मूल्यों से दूर होती जा रही है। यह स्थिति चिंता का विषय है, क्योंकि हमारी संस्कृति का संरक्षण केवल हमारे समाज की पहचान का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए भी आवश्यक है। हम देख रहे हैं कि दिवाली और होली जैसे त्योहार, जो कभी केवल धार्मिक नहीं बल्कि सामाजिक और पारिवारिक एकता के प्रतीक थे, अब केवल बाहरी प्रदर्शन तक सीमित हो गए हैं। इन त्योहारों का वास्तविक अर्थ खोता जा रहा है, और इसके स्थान पर एक उथला उपभोगवाद आ गया है। 

हमारे भारतीय समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक स्थानों का महत्व केवल एक पूजा स्थल के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक मिलन और आस्था का प्रतीक भी रहा है। गंगा का तट हो या हिमालय की गुफाएं, ये स्थल हमारी संस्कृति की गहराई को प्रकट करते हैं। लेकिन आज, इन स्थानों का संरक्षण और उनका महत्व युवाओं में कम होता जा रहा है। यह भी एक कारण है कि हमारी संस्कृति धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। अगर हम आने वाली पीढ़ियों को इन स्थलों का महत्व नहीं समझा पाएंगे, तो हमारी सांस्कृतिक पहचान भी धुंधली पड़ सकती है। 

भारतीय संस्कृति का आधार “वसुधैव कुटुंबकम्” है, जिसका अर्थ है कि पूरा विश्व एक परिवार है। यह विचारधारा न केवल हमें सहिष्णुता और भाईचारे का पाठ पढ़ाती है, बल्कि यह एक ऐसा मार्गदर्शन भी है, जो दुनिया को शांति और समृद्धि की ओर ले जा सकता है। लेकिन आज, पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में, हम व्यक्तिगत हितों और उपभोग की ओर अधिक झुकते जा रहे हैं। हमें यह समझना होगा कि भारतीय संस्कृति का सार केवल रीति-रिवाजों और परंपराओं में नहीं, बल्कि उन मूल्यों में है, जो हमें अपने समाज और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाते हैं। उदाहरण के लिए, पर्यावरण संरक्षण का महत्व भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से रहा है, जैसे वृक्षों, नदियों और पहाड़ों को देवी-देवताओं का स्वरूप मानकर उनकी पूजा की जाती रही है। यह दृष्टिकोण न केवल आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह पर्यावरण के प्रति हमारी जिम्मेदारी को भी दर्शाता है। 

वर्तमान समय में, भारतीय संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन आवश्यक है। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि हम शिक्षा व्यवस्था में सांस्कृतिक और नैतिक शिक्षा को शामिल करें। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में केवल विज्ञान और गणित की पढ़ाई नहीं होनी चाहिए, बल्कि भारतीय दर्शन, इतिहास और संस्कृति की भी शिक्षा दी जानी चाहिए। आज की युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति और परंपराओं का महत्व समझाने के लिए स्कूलों में ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन करना चाहिए, जहां वे अपने गौरवशाली अतीत और सांस्कृतिक धरोहर से परिचित हो सकें। संत तुलसीदास के शब्द “परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई” हमें यह याद दिलाते हैं कि धर्म केवल व्यक्तिगत मोक्ष का साधन नहीं है, बल्कि परोपकार भी है। यह संदेश हमें आज के इस स्वार्थी समाज में एक दूसरे की मदद करने और समाज के हित के बारे में सोचने की प्रेरणा देता है। 

इसके अतिरिक्त, समाज के स्तर पर भी हमें अपने सांस्कृतिक आयोजनों को सजीव रखना चाहिए। चाहे वह धार्मिक अनुष्ठान हों, मेलों का आयोजन हो या फिर सांस्कृतिक महोत्सव, इनका आयोजन समाज को एकजुट करने का माध्यम होना चाहिए, न कि केवल एक औपचारिकता। समाज के हर वर्ग, विशेषकर युवाओं को इन आयोजनों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे न केवल उनकी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ाव बढ़ेगा, बल्कि वे अपनी संस्कृति के प्रति गर्व भी महसूस करेंगे। 

साथ ही, हमें यह भी समझना होगा कि भारतीय संस्कृति का असली सौंदर्य उसकी विविधता में है। भारत में विभिन्न भाषाएं, धर्म, जातियाँ और परंपराएं हैं, जो हमारे समाज को और भी समृद्ध बनाती हैं। “धर्मो रक्षति रक्षितः” अर्थात धर्म की रक्षा करने पर ही वह हमारी रक्षा करेगा – इस श्लोक का महत्व आज के समय में और भी बढ़ जाता है। जब हम अपनी संस्कृति का सम्मान करेंगे और उसकी रक्षा करेंगे, तभी हम एक सशक्त और आत्मनिर्भर समाज का निर्माण कर पाएंगे। 

अतः यह आवश्यक है कि हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर का आदर करें और उसे नई पीढ़ी तक पहुंचाने के हरसंभव प्रयास करें। समाज के हर वर्ग को यह जिम्मेदारी उठानी होगी कि वे अपने पारंपरिक मूल्यों और संस्कारों को जीवित रखें। हमें यह समझना होगा कि हमारी संस्कृति केवल एक धार्मिक संरचना नहीं है, बल्कि यह एक जीवन शैली है, जो हमें संयमित, सहिष्णु और संतुलित जीवन जीने का मार्ग दिखाती है। अगर हम अपने बच्चों को इस संस्कृति का मूल्य नहीं समझाएंगे, तो हमारी पहचान और हमारे संस्कार धीरे-धीरे विलुप्त हो सकते हैं। 

अंत में, भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा संदेश यही है कि हम सभी को अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए और समाज के हित में कार्य करना चाहिए। “सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः” का आदर्श तभी साकार होगा, जब हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर का सम्मान करेंगे और इसे आने वाली पीढ़ियों तक सजीव रूप में पहुंचाएंगे। हमें यह समझना होगा कि हमारी संस्कृति में ही हमारी आत्मा है, और जब तक यह संस्कृति जीवित है, तब तक हमारा अस्तित्व भी जीवित रहेगा।

— अवनीश कुमार गुप्ता

अवनीश कुमार गुप्ता

साहित्यकार, स्वतंत्र स्तंभकार, समीक्षक एवं पुस्तकालयाध्यक्ष पता: प्रयागराज 211008, उत्तर प्रदेश मोबाइल: 8354872602 ईमेल: [email protected]