कविता

बुजुर्ग भी ढलते सूरज के सम

उगता सूरज सबको भाता,
लगता उसका ओज ललाम,
अस्ताचलगामी जब होता दिनकर,
ढलते को भी करें प्रणाम।

ढलता सूरज अनुभव की आभा,
लालिमा लिए उपकार की,
छ्ठ पर्व के ढलते को नमन से,
संस्कृति है दिन चार की।

नहाय-खाय से शुरू छ्ठ पूजा,
खरना, संध्या अर्घ्य, श्रद्धा-विश्वास,
सृष्टि की मूल प्रवृत्ति छठ मैय्या,
प्रात: अर्घ्य से पूर्ण करे आस।

बुजुर्ग भी ढलते सूरज के सम,
ज्ञान-अनुभवों का होते खज़ाना,
जीते जी उनकी तृप्ति-संतुष्टि,
महत्वपूर्ण है, भूल न जाना।

सूर्य के सम निष्काम रहकर,
करते पालन-पोषण-संरक्षण,
जाता सूर्य सौंपता डोर शशि को,
नव पीढ़ी को बुजुर्ग अधिरक्षण।

== लीला तिवानी

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244