चिन्ता मत कर! मैं हूँ ना…
मेरे पापा अपने से छोटी चार बहनें कल्पना भुआ, राखी भुआ, वीणा भुआ एवं सबसे छोटी जया भुआ के इकलौते भाई है। मेरे दादाजी ने अपनी दो बड़ी बेटियों (कल्पना एवं राखी भुआ) का विवाह अपने जीते जी ही बड़ी ही धुमधाम से कर दिया। बाकि की दो भुआओं (वीणा एवं जया भुआ) का विवाह पापा ने भी बहुत धूमधाम से किया। वैसे तो पापा अपनी सभी बहनों से बहुत प्यार करते थे, लेकिन उनका सबसे ज्यादा स्नेह अपनी सबसे छोटी बहन जया से अधिक था। दादा-दादीजी के गुजर जाने के बाद जिसको उन्होंने अपनी बेटी की तरह ही पाला था। जया भुआ जिसने विवाह के पष्चात् शायद ही कभी कोई सुख देखा हो। उनके विवाह के तुरन्त बाद उनके देवर महेषजी ने सारा व्यापार हड़प कर उन्हें फुफाजी के साथ घर से बेदखल कर दिया था। तभी से फ़ूफाजी की आर्थिक एवं मानसिक हालत ज्यादा अच्छी नहीं थी। वे किसी सेठ के यहाँ मामूली सी नौकरी कर थोड़ा बहुत कमाते थे। बेहद मुश्किल से भुआ घर चलाती थी। अपने इकलौते बेटे श्याम को भी मोहल्ले के ही किसी सरकारी स्कूल में डाल रखा था। अच्छे दिनों की उम्मीद सी लेकर भुआजी किसी तरह जिये जा रहीं थीं। अक्सर जया भुआ को अपनी छोटी-मोटी जरुरतों के लिए कभी किसी के सामने तो कभी किसी के सामने हाथ फैलाना पड़ता था। हालात ये हो गए थे कि ज्यादातर रिश्तेदारों ने उनका फोन ही उठाना बंद कर दिया। बड़ा भाई होने के नाते बस एक पापा ही थे जो अपनी सीमित तनख्वाह के बावजूद कुछ-न-कुछ भुआ को दिया करते थे। कुछ दिनों पष्चात् दीपावली का त्यौहार भी आने वाला था। एक दिन पापा रोज की तरह ऑफिस से आते ही टेबल पर लंच बॉक्स और लैपटॉप का बैग रखकर सोफ़े पर पसर गए थे। लेटे-लेटे कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने मम्मी को आवाज लगाई और कहा कि- ‘‘मीनाक्षी इस बार भाई दूज के दिन हम सब सुबह वाली ट्रेन से जया के घर बाड़मेर उसे बताए बगैर जाएंगे।’’ ‘‘जया दीदी के घर..!!’’ मम्मी तो पापा की बात पर एकदम चौंक सी गयी थी। कुछ देर के बाद मम्मी ने पापा से कहा-‘‘आपको पता है न कि उनके घर मे कितनी तंगी है, हम तीन लोगों का नास्ता-खाना भी दीदी के लिए कितना भारी हो जाएगा। वो कैसे सबकुछ मैनेज कर पाएगी।’’ पापा की खामोशी बता रहीं थीं उन्होंने जया भुआ के घर जाने का मन बना लिया है और घर में ये सबको पता था कि पापा के निश्चय को बदलना बेहद मुश्किल होता है। दीपावली का त्यौहार हमने बहुत ही धूमधाम से मनाया। दीपावली के तीसरे दिन ही सुबह वाली ट्रेन से हम सब जया भुआ के घर बाड़मेर पहुँच गए। उस समय भुआ घर के बाहर बने बरामदे में लगे नल के नीचे कपड़े धो रहीं थीं। भुआ उम्र में सबसे छोटी थी पर तंग हाली और रोज की चिंता फिक्र ने उसे सबसे उम्रदराज बना दिया था। एकदम दुबली-पतली और बेहद ही कमजोर नज़र आ रही थी। इतनी कम उम्र में उनके चेहरे की त्वचा पर सिलवटें साफ़ दिख रहीं थीं। भुआ की शादी का फोटो एल्बम मैंने कई बार देखा था। शादी में उनकी खूबसूरती का कोई ज़वाब नहीं था। शादी के बाद के ग्यारह वर्षाे की परेशानियों ने उनको कितना बदल दिया था। बेहद पुरानी घिसी सी साड़ी में भुआ को दूर से ही पापा-मम्मी कुछ क्षण देखे जा रहे थे। पापा की आँखे उन्हें इस हालत में देखकर डबडबा सी गयी थी। हम सब पर नज़र पड़ते ही भुआजी एकदम चौंक गयी थी। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वो कैसे और क्या प्रतिक्रिया दे। अपने बिखरे बालों को सम्भाले या अस्त व्यस्त पड़े घर को दुरुस्त करे। उसके घर तो वर्षों से कोई मेहमान आया ही नहीं था। वो तो जैसे जमाने पहले ही भूल चुकी थी कि मेहमानों को घर के अन्दर आने को कैसे कहा जाता है। भुआजी के बारे मंे अक्सर हमारे घर में यह बात होती रहती है कि बचपन से उन्हें साफ सफ़ाई और सजने सँवरने का बेहद शौक रहा था। पर आज दिख रहा था कि अभाव और चिंता कैसे इंसान को अंदर से दीमक की तरह खा जाती है। पापा ने आगे बढ़कर सहम सी गयी अपनी बहन को गले से लगा लिया। ‘‘भैया! भाभी, बबलू तुम सब आज अचानक? सब ठीक है न…?’’ भुआ ने कांपती सी आवाज में पूछा। ‘‘आज काफी समय के अन्तराल के बाद मन हुआ भाई दूज के इस पावन त्यौहार पर तुम्हारे घर आने का, तो बस आ गए हम सब।’’ पापा ने भुआ को सहज करते हुए कहा था। ‘‘भाभी आओ न अंदर, मैं चाय नास्ता लेकर आती हूँ।’’ पापा ने भुआ के हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा- ‘‘जया तुम बस मेरे पास बैठो। चाय-नाष्ता मीनाक्षी देख लेगी।’’ पापा ने यहाँ आते समय रास्ते में रुककर बहुत सारी मिठाइयाँ और नमकीन खरीद लिये। मम्मी भुआ के किचन में जाकर उन मिठाइयों एवं नमकीन से हम सबके लिए प्लेट लगाने लगी। उधर भुआ कमरे में पुरानी फटी चादर बिछे खटिया पर अपने भैया के पास बैठी थीं। भुआजी का बेटा श्याम दौड़कर फ़ूफाजी को बुला लाया था। भाई दूज मनाने का मुहूर्त शाम सात बजे से शुरु होने को था। मम्मी जया भुआ को लेकर बाजार चली गयी थी। उन सबके लिए नए ड्रेसेस, घर के लिए राषन तथा अन्य सामान खरीदने के लिए। शाम होते-होते भुआजी के पूरे घर का हुलिया बदल दिया गया था। नए पर्दे, बिस्तर पर नई चादर, रंग बिरंगे डोरमेट और सारा परिवार नए ड्रेसेस पहनकर जंच रहा था। न जाने कितने वर्षों के बाद आज भुआ की रसोई का स्टोर लाए हुए सामान से लबालब भरा हुआ था। धीरे-धीरे एक आत्मविश्वास सा लौटता दिख रहा था भुआ के चेहरे पर। पर सच तो ये था कि उन्हें अभी भी सब कुछ एक स्वप्न सा लग रहा था। शाम को मुर्हुर्त से पूर्व भुआजी ने थाली में भाई दूज के लिए सभी सामग्री एकत्रित कर ली। मिठाई का डब्बा भी रख लिया था। जैसे ही भुआ पापा को तिलक करने लगी तो पापा ने उनको रुकने को कहा। सभी आश्चर्यचकित थे। ‘‘दस मिनट रुक जाओ हमारी दूसरी बहनें भी बस पहुँचने वाली ही होगी।’’ पापा ने मुस्कुराते हुए कहा तो सभी उनकी ओर देखते रह गए। तभी बाहर दरवाजे पर एक साथ कई गाड़ियों के हॉर्न की आवाज सुनकर जया भुआ, मम्मी और फूफ़ाजी दौड़ कर बाहर आए और देखा कि कल्पना, राखी एवं वीणा भुआओं का पूरा परिवार सामने था। जया भुआ का घर उस दिन मेहमानों से खचाखच भर गया था। कल्पना भुआ बताने लगी कि कुछ समय पहले ही उन्होंने पापा से कहा था कि क्यों न हमसब एकसाथ मिलकर चार धाम की यात्रा पर निकलते है। बस इसीलिए पापा ने उस दिन तीनों बहनों को फोन किया कि अब चार धाम की यात्रा करने का समय आ गया है। पापा की बात पर तीनों भुआ सहमत थी और सबने तय किया था कि इस बार जया के घर हमसब एक साथ जमा होंगे और थोड़े-थोड़े पैसे मिलाकर उसकी सहायता करेंगे। जया भुआ तो बस एकटक अपनी बहनों और भाई के परिवार को देखें जा रहीं थीं। कितना बड़ा सरप्राइज दिया था आज सबने मिलकर उसे। सारी बहनों से वो गले मिलती जा रहीं थीं। सभी बहनों ने बारी-बारी से पापा को तिलक कर आरती उतारी एवं मिठाई खिलाई। ऐसा भाई दूज शायद पहली बार था सबके लिए। रात को एक बड़े से रेस्टोरेण्ट में हम सभी ने एक साथ डिनर किया। हँसी-मजाक और गप्पे मारते-मारते न जाने कब काफी रात बीत चुकी थी कि पता ही नहीं चला। अभी भी जया भुआ ज्यादा कुछ बोल नहीं रहीं थीं। वो तो बस बीच-बीच में छलक आते अपने आँसू पोंछ लेती थी। घर पहुँचने के बाद बीच आंगन में ही सब चादर बिछा कर लेट गए थे। जया भुआ पापा से किसी छोटी बच्ची की तरह चिपकी हुई थी। मानो इस प्यार और दुलार का उसे वर्षों से इन्तज़ार था। बातें करते-करते अचानक पापा को भुआ का शरीर एकदम ठंडा सा लगा तो पापा घबरा गए थे। सभी लोग जाग गए पर जया भुआ हमेशा के लिए सो गयी थी। पापा की गोद में एक बच्ची की तरह लेटे-लेटे वो विदा हो चुकी। पता नही कितने दिनों से बीमार थीं और आज तक किसी से यह बात कही भी नही थीं। आज अपने परिवार से मिलने की आश लिये ही जिन्दा थीं शायद।
— राजीव नेपालिया (माथुर)