माँ की संदूक
न जाने उस बक्से में क्या, रख देती थी मेरी मां।
जब भी उसको खोले तब तब, मुस्का देती मेरी मां।।
मैं भी सिरहाने बैठ गई, जब वो बक्सा खोली थी।
देखा उसमें अपना बचपन, यादों की एक झोली थी।।
एक में थी दीदी की गुड़िया, और भाई की बंदूक।
उन सारे बीते लम्हों से, भर चुकी थी वह संदूक।।
आंखे छिपाकर बच्चों से जब, देखा बनारसी लाल।
नैनों के कोरो के अश्रुजल, बता दिए हृदय का हाल।।
माता-पिता दोनो भूमिका, कैसे भला निभाई थी।
पिता तो होते हैं मजबूत, तब ही नीर छिपाई थी।।
रो ले मां अब तू जी भर कर, इस कंधे पर रख ले सर।
भीग गए सारे ये कांधे, भोर हो गई रो रो कर।।
प्राची से फिर निकला दिनकर, दे डाला सबको संदेश।
दुख के दिन तो क्षणिक मात्र है, जीवन होता अति विशेष।।
— सविता सिंह मीरा