भोग
लघुकथा
भोग
मिठाई की दुकान में सिर्फ आठ-नौ साल के बच्चे को ही बैठे देख मैंने पूछा है- “क्या ये दुकान आपकी है।”
“हाँ जी, आपको यहाँ और कोई भी दिख रहा है क्या ?” उसने तपाक से जवाब दिया।
“ना जी। वो तो आपको यहाँ पहली बार देख रहा हूँ, सो पूछ लिया।”
“हाँ, आपकी बात भी सही है। दरअसल आज पापा थोड़ी देर के काम से मार्केट गए हैं। इसलिए उनकी जगह मैं बैठ गया हूंँ दुकान में। कहिए, क्या चाहिए आपको ?”
“मिठाई लेनी थी जी।”
“बताइए, कौन-सी मिठाई चाहिए आपको और कितनी चाहिए ? सबमें प्राइज टैग तो लगा ही है।”
“वैसे कौन-सी मिठाई सबसे अच्छी है ?”
“मुझे नहीं पता जी, क्योंकि मैंने कभी खाई नहीं।”
“क्यों ? क्या आपके पिताजी आपको मिठाई खाने के लिए नहीं देते हैं ?”
“नहीं जी, वे तो कहते हैं कि इसे खाने से लोग बीमार पड़ जाते हैं। सुगर हो जाता है।”
“अच्छा, ये बताओ कि क्या तुम्हारा इन्हें खाने का मन नहीं करता है ?”
“करता तो है लेकिन पापा की…”
“देखो आज मेरा बर्थ डे है। मैं अपने बर्थ डे पर मुहल्ले के सभी बच्चों में सबसे अच्छी वाली मिठाई बाँटना चाहता हूँ। पर मुझे तो पता ही नहीं कि इनमें से कौन-सी मिठाई सबसे अच्छी है ? तुम्हें भी नहीं पता। क्या करें ?”
“….”
“सुनो न तुम एक काम करो। सभी मिठाइयों की एक-एक पीस खाकर मुझे बताओ कि इनमें से कौन-सी मिठाई सबसे ज्यादा स्वादिष्ट है ?”
“पर…”
“देखो, तुम चिंता मत करो। सभी मिठाइयों की एक-एक पीस की कीमत मैं चुका दूँगा और जो मिठाई बेस्ट होगी उसकी तीन किलो मिठाई खरीद लूँगा। ऑफ्टर ऑल पूरे मुहल्ले में बाँटनी है।”
बच्चे ने वैसा ही किया।
सच कहूँ तो पहली बार मुझे लगा कि भगवान ने मेरा भोग स्वीकार कर लिया।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़