सामाजिक रीत
सामाजिक रीत है एकजुट रहने का,
अपनों के साथ अपनी बात कहने का,
पर सामाजिक रीत की डोर
इस कदर न बंधे हो कि प्रगति रोके,
जीवन में आते रहते हैं अच्छे बुरे झोंके,
रीत रिवाजों की कट्टरता
एक सामाजिक बुराई है,
सामाजिक सौहार्द्र के डोर में आई ढिठाई है,
लचीलापन समाज में एक नई सोच लाता है,
जिसमें चिंतन-मनन,तर्क और विज्ञान समाता है,
कुछ कट्टरपंथियों के कारण देश में
बजबजा रहा ऊंच नीच की नाली,
खुद को उच्च कह दूसरों को दे रहे गाली,
ऐसे लोग परोसते हैं रिवाज दकियानूसी,
खुले दिल का न हो करते हैं कानाफूसी,
कुछ लोग करते हैं नफरतों का व्यापार,
संपन्न करते हैं पाखंडों का वृहद संचार,
समय बहुत कुछ तय करता है,
लचीला सोच समाज में सकारात्मकता भरता है,
चंद लोगों की बातें उनकी अपनी ही रहेगी,
सभ्य समाज इसे नहीं सहेगी,
रीत वही जो उन्नति की राह खोले,
जो कट्टरपंथ के इर्द गिर्द न डोले,
खुलापन और मिलकर चलना
यदि नहीं सीखा पाता कोई समाज,
कर पायेगा कौन नये नये
अविष्कारों वाला नूतन काज,
चली आयी रीत उन्नति की राह रोकता है,
जो सदा भयावहता की आग में झोंकता है।
— राजेन्द्र लाहिरी