कविता

आँखें ही होती हैं दिल की जुबान

ये मौन अधर मुखरित लोचन,
तुम कहाँ पढ़े विमल सा मन
पहुँची भी नहीं तनिक तुम तक
मेरे इस हृदय का स्पंदन?
कहते हैं सब प्रेम हो अगर
भर जाता मन का सूनापन
तो कहो मदन!फिर हम कैसे
दिखला दें नीर भरे नयन?

इतने भी तो न थे अनजान,
जो पढ़ ना सके नैनो की जुबान।

गर कहीं मिलोगे तुम फिर से
ना तकना मेरी आँखों में
कई पन्ने अंकित है उसमें
जो संचित किये विरानी में।
सुधि में संचित अब भी प्रमाण
इतना न बनो प्रिये अनजान।

दीपक की भांति ही जल जल कर
मैं राख हुई हूँ कई दफा,
खाक हुये उन ही यादों से
होती थी तेरी ही पहचान,
बाकी है अब भी कुछ निशान।

करना क्यों है इतना अभिमान?
इतना भी ना रहो अनजान।

— सविता सिंह मीरा

सविता सिंह 'मीरा'

जन्म तिथि -23 सितंबर शिक्षा- स्नातकोत्तर साहित्यिक गतिविधियां - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित व्यवसाय - निजी संस्थान में कार्यरत झारखंड जमशेदपुर संपर्क संख्या - 9430776517 ई - मेल - [email protected]

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