गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

कोई कर के वो भूल आया है,
शोहरतें कर के धूल आया है।

जिसकी कांटों के जैसी फितरत वो।
आज बनकर के फूल आया है।

हम जिसे बेगुनाह समझे थे,
जुर्म कर के कूबूल आया है।

है बहुत खूब ग़ज़ल पर इसमें,
शेर ये ऊलज़लूल आया है।

है ये बनिये सी ज़िंदगी जिसका,
ब्याज आया न मूल आया है।

कोई तो काम जय को होगा ही,
यूंँ न समझें फिजूल आया है।

— जयकृष्ण चांडक ‘जय’

*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से

Leave a Reply