ग़ज़ल
उसने जब जब घावों पर नश्तर रक्खा
हमने अपने सीने पर पत्थर रक्खा
आया है अनहोनी की जद के भीतर
जिसने ख़ुद को आपे से बाहर रक्खा
जैसे मन के भाव रहे वैसा चेहरा
वैसा ही अपना आखर आखर रक्खा
वे सब हारे तो फिर मेरी जीत कहाँ
मैने इस कारण ख़ुद को कायर रक्खा
गुरबत ने तो ख़ूब परीक्षा ली फ़िर भी
हमने ज़िन्दा भीतर का शायर रक्खा
जिसने की तौहीन बुलाकर अपने घर
पाँव न दौबारा उसके दर पर रक्खा
उसको मन से किसने मान दिया बंसल
जिसने करनी कथनी में अंतर रक्खा
— सतीश बंसल