कविता

प्रसाद

जो थे छाया में भी छूत लिए
वे भी अब चाव से खा रहे हैं,
प्रतिबंधित जगहों के साथ ही
घर मुहल्लों में भी प्रसाद पा रहे हैं,
प्राचीन काल की बानगी आज भी
कहीं कहीं दिख जाता है,
बड़े हो या बूढ़े प्रसाद के लालच में
तरीके से पिट जाता है,
ये भुक्तभोगी संतुष्ट नहीं है
संविधान रूपी प्रसाद पाकर,
समझ नहीं रहे कि करना है क्या
सर्प सा ऐंठ रहे अधिकारों को गा कर,
ये अधिकार तमाम वंचितों के
अथक संघर्षों का प्रतिफल है,
उनके मुखर हो कार्य करने के कारण
सुबह हो रहा इनका आजकल है,
हमने पढ़े हैं मंत्रोच्चार पर गर्दन कटना,
मंत्र सुन लेने पर कान गरम शीशे से ढंकना,
ये कृतघ्न कौम है जो
जल्दी ही किसी के संघर्षों को भूल जाता है,
जब चोट पड़ती है खीर प्रसाद की राह में
तब संविधान के अनुच्छेद याद आता है,
पढ़ना लिखना इन्हें लगता है नाहक,
उपवास,पूजा पाठ और चमत्कारी
जैसे कि इन्हें चुटकी में थमा देगा हक,
पूजा ही करना है तो देश व विधान की करे,
जरूरी है उपवास तो दो रोटी
समाज के लोगों को दान करें,
हवन करना है तो अपनी लालसा का करे,
अपने अंदर शिक्षा का हर एक जोत भरे,
तब कोई रोक नहीं सकता इन्हें हासिल करने से,
राज,महल और प्रासाद,
कब तक वंचित रहियेगा
चलो चखने संसद का स्वाद।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554

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