व्यथा युवाओं की
दिन रात पढ़ें लिखें, रोज कुछ नया सीखें,
युवा नित ऊँचे–ऊँचे, सपने सजाते हैं।
मोटी–मोटी सी किताब, रखते नहीं हिसाब,
नींद-चैन खान-पान, दाॅंव पे लगाते हैं।।
अपना शहर छोड़ें, दूर देश नाता जोड़ें,
नदियों की धारा जैसे, पैसे भी बहाते हैं।
तकलीफें मोल लेते, खेती-खार बेच देते,
गरीब माँ–बाप देखो, विश्वास जगाते हैं।।
मेहनत खूब करें, फाॅर्म हर माह भरें,
घर से वे दूर रहें, कोचिंग में जाते हैं।
नौकरी की आस जागे, इसके ही पीछे भागे,
आधी जिंदगी तो युवा, ऐसे ही बिताते हैं।।
घूसखोरी का जमाना, उल्टे पाँव लौट जाना,
सीधे-सादे भोले लोग, देखो धोखा खाते हैं।।
काम पाने सरकारी, होती रोज मारामारी,
कुछ लोग गड्डी फेंके, हक वे जमाते हैं।
नौकरी जो पास नहीं, जीवन भी खास नहीं,
युवाओं के पास बैठो, व्यथा वे सुनाते हैं।
बढ़ती है परेशानी, सब की यही कहानी,
ताना कसे रिश्तेदार, व्यंग्य बरसाते हैं।।
किस्मत की नहीं बात, हृदय में होती घात,
बड़े ही जतन कर, नौकरी वे पाते हैं।
हाथ लगे सरकारी, चारों ओर चर्चा भारी,
जिंदगी आनंद भरे, खुशियाॅं मनाते हैं।।
— प्रिया देवांगन “प्रियू”