राजनीति

डिजिटल युग में सहकारिता की नई परिभाषा

भारत में सहकारिता का विचार केवल एक आर्थिक मॉडल नहीं, बल्कि सामूहिक विकास और भारतीय दर्शन का अभिन्न अंग है। यह सामूहिक प्रयासों से सामाजिक और आर्थिक उत्थान की परंपरा का प्रतीक है, जो महात्मा गांधी और सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे नेताओं की सोच से प्रेरित है। वर्तमान समय में सहकारिता मंत्रालय द्वारा शुरू की गई राष्ट्रीय सहकारी डेटाबेस और पैक्स कंप्यूटराइजेशन योजना जैसे कदम सहकारिता को डिजिटल युग में सशक्त बनाने की दिशा में महत्वाकांक्षी प्रयास हैं। राष्ट्रीय सहकारी डेटाबेस का उद्देश्य देशभर की सहकारी समितियों का एक केंद्रीय डेटाबेस तैयार करना है, ताकि उनके कामकाज की निगरानी हो सके और योजनाओं का लाभ सही लाभार्थियों तक पहुँचाया जा सके। इस पहल में अब तक लगभग 2.25 लाख समितियों को पंजीकृत किया गया है, लेकिन यह संख्या देश में मौजूद 8 लाख से अधिक समितियों की तुलना में बहुत कम है। यह पहल न केवल सहकारी समितियों की पारदर्शिता बढ़ाने का प्रयास है, बल्कि उन्हें डिजिटल तकनीक के माध्यम से और अधिक प्रभावशाली बनाने का भी माध्यम है।

हालाँकि, सहकारिता के इस डिजिटलरण में कई चुनौतियाँ भी सामने आई हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी समितियों का डिजिटलीकरण, विशेष रूप से पैक्स कंप्यूटराइजेशन योजना, अभी भी बुनियादी ढाँचे और तकनीकी कौशल के अभाव में बाधित है। उदाहरण के लिए, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में लगभग 70% समितियाँ अभी भी डिजिटल उपकरणों और इंटरनेट कनेक्टिविटी के लिए संघर्ष कर रही हैं। राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम की एक रिपोर्ट के अनुसार, देशभर में सहकारी समितियों के माध्यम से 12 करोड़ से अधिक किसान जुड़े हुए हैं, लेकिन इनमें से केवल 30% ही इन योजनाओं का वास्तविक लाभ उठा पाते हैं। यह असमानता योजनाओं के क्रियान्वयन में मौजूदा खामियों को उजागर करती है। सहकारी समितियों के डिजिटलीकरण का उद्देश्य भ्रष्टाचार और बिचौलियों की समस्या को समाप्त करना है। लेकिन क्या यह संभव है जब कई समितियाँ अभी भी राजनीतिक हस्तक्षेप, प्रशासनिक अराजकता और स्थानीय प्रभावशाली व्यक्तियों के नियंत्रण में हैं?

इस संदर्भ में, यह समझना आवश्यक है कि सहकारिता का उद्देश्य केवल आर्थिक लाभ तक सीमित नहीं होना चाहिए। इसका व्यापक लक्ष्य ग्रामीण समाज के सशक्तिकरण और सामूहिकता की भावना को बढ़ावा देना है। सहकारी समितियाँ न केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार बन सकती हैं, बल्कि वे सामाजिक ताने-बाने को भी मजबूत कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र और गुजरात में सहकारी समितियाँ कृषि और डेयरी उत्पादन में सफलता के मॉडल प्रस्तुत करती हैं। लेकिन इन राज्यों में सहकारिता की सफलता का कारण मजबूत प्रशासनिक ढाँचा और समितियों की स्वतंत्रता है। इसके विपरीत, कई अन्य राज्यों में सहकारी समितियाँ राजनीतिक हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार की शिकार हैं।

डिजिटल पहलें, जैसे पैक्स कंप्यूटराइजेशन योजना, एक ओर तो समितियों की पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित कर सकती हैं, लेकिन दूसरी ओर यह योजना केवल उन्हीं क्षेत्रों में प्रभावी हो सकती है जहाँ बुनियादी डिजिटल अवसंरचना मौजूद है। सरकार की मंशा भले ही सराहनीय हो, लेकिन जमीनी स्तर पर इसके प्रभाव को लेकर कई सवाल खड़े होते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तकनीकी जागरूकता और कौशल की कमी के कारण समितियों का डिजिटलीकरण धीमा है। उदाहरण के लिए, कई समितियों के पास न तो प्रशिक्षित कर्मचारी हैं और न ही पर्याप्त संसाधन। इसके अतिरिक्त, डिजिटलीकरण की प्रक्रिया को समझने और अपनाने में भी स्थानीय समितियों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।

सहकारिता के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए प्रशासनिक सुधार और प्रशिक्षण कार्यक्रमों की सख्त आवश्यकता है। समितियों के प्रबंधन में पारदर्शिता लाने के लिए स्थानीय समुदायों को शामिल किया जाना चाहिए। साथ ही, डिजिटलीकरण प्रक्रिया को सरल और बहुभाषीय बनाना चाहिए, ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोग इसे आसानी से समझ और उपयोग कर सकें। सरकारी योजनाओं की सफलता केवल तब सुनिश्चित की जा सकती है जब समितियों को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त किया जाए और उनके प्रबंधन को स्वतंत्र बनाया जाए।

इसके अतिरिक्त, सहकारिता का लाभ केवल किसानों और छोटे व्यापारियों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। इसे ग्रामीण शिक्षा, स्वास्थ्य, और सामाजिक कल्याण के क्षेत्रों में भी विस्तार दिया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, सहकारी समितियाँ ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूल और अस्पताल चलाने में मदद कर सकती हैं। यह पहल न केवल ग्रामीण समाज के उत्थान में मदद करेगी, बल्कि सामाजिक न्याय की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम होगा।

एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह है कि सहकारिता को केवल सरकारी योजनाओं के माध्यम से सशक्त नहीं किया जा सकता। इसमें निजी क्षेत्र और गैर-सरकारी संगठनों की भागीदारी भी आवश्यक है। निजी क्षेत्र तकनीकी विशेषज्ञता और वित्तीय संसाधन प्रदान कर सकता है, जबकि गैर-सरकारी संगठन जमीनी स्तर पर जागरूकता फैलाने और समुदायों को संगठित करने में मदद कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, अमूल जैसी सहकारी समितियाँ इस बात का उदाहरण हैं कि कैसे सहकारिता और निजी क्षेत्र का मेल एक सफल मॉडल बना सकता है।

हालाँकि, सहकारिता के डिजिटलीकरण के प्रयासों की आलोचना भी जरूरी है। कई विशेषज्ञों का मानना है कि इन योजनाओं का लाभ केवल उन्हीं क्षेत्रों तक सीमित रहेगा जहाँ पहले से ही संसाधन और संरचना मजबूत हैं। इसके विपरीत, पिछड़े और आदिवासी क्षेत्रों में ये योजनाएँ शायद ही प्रभावी होंगी। सहकारी समितियों के डिजिटलीकरण के लिए आवश्यक बुनियादी ढाँचे का विकास एक लंबी और चुनौतीपूर्ण प्रक्रिया है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या सरकार इन योजनाओं को पूरी तरह से लागू करने के लिए तैयार है, या फिर यह केवल एक राजनीतिक एजेंडा बनकर रह जाएगा?

सरकार को सहकारिता के प्रभाव को बढ़ाने के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। योजनाओं को लागू करते समय स्थानीय समस्याओं और आवश्यकताओं को ध्यान में रखना आवश्यक है। इसके साथ ही, समितियों के कामकाज की नियमित निगरानी और मूल्यांकन भी जरूरी है। यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सरकारी सहायता केवल उन्हीं समितियों तक पहुँचे जो वास्तव में सामूहिक विकास के लिए काम कर रही हैं।

सहकारिता का वास्तविक सार पारदर्शिता, सामूहिक प्रयास और सामाजिक उत्थान में निहित है। यदि इसे सही ढंग से लागू किया जाए, तो यह न केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त बना सकता है, बल्कि सामाजिक न्याय और सामूहिकता की भावना को भी बढ़ावा दे सकता है। सहकारिता के इस सफर में चुनौतियाँ भले ही बड़ी हों, लेकिन सही दृष्टिकोण और प्रतिबद्धता के साथ यह भारत के विकास का एक मजबूत आधार बन सकता है। आखिरकार, सहकारिता का उद्देश्य “सभी के लिए समान अवसर और संसाधन” प्रदान करना है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सरकार, समाज और सहकारी समितियों को मिलकर काम करना होगा। यदि यह संभव हुआ, तो सहकारिता भारतीय समाज के आर्थिक और सामाजिक विकास की नींव बन सकती है।

— अवनीश कुमार गुप्ता

अवनीश कुमार गुप्ता

साहित्यकार, स्वतंत्र स्तंभकार, समीक्षक एवं पुस्तकालयाध्यक्ष पता: प्रयागराज 211008, उत्तर प्रदेश मोबाइल: 8354872602 ईमेल: [email protected]