चिट्ठी
चिट्ठी
एक वक्त था तब
शब्दों के साथ एहसास भी
छप जाया करते थे कागज पर
आज शब्द तो हैं लेकिन एहसास नहीं है
कितना कुछ भरा पड़ा है घर में
लेकिन फिर भी कोई पास नहीं है
संबंधों में उम्मीदें खो गई है
अंधी आँखें हो गई हैं
उसे दौर में चिट्ठी की महक से
चहक उठता था सारा गांव
मुस्कुराता हुआ चेहरा डाकिए का ढूंढता था घर
टकटकी लगाए रहते थे
मां,बहन, भाई,बाप ,बीवी,बच्चे बेसब्र
कोई पढ़ कर सुनता था
कोई अकेले में पढ़ता था
उसे चिट्ठी में सबके लिए भाव अलग थे
ऐसा लगता था किसी जादूगर ने लिखा है
अब वो साइकिल की ट्रिन-ट्रिन नहीं रही
फोन की रिंग बची है
बिना लगाव
बिना भाव
ये दुनिया दिखावे ने
अपनी चादर नीचे ढाल रखी है
सच और मेहनत से कोसो दूर
सभी ने केवल महत्वकांक्षाएं पाल रखी है
वो कलम और वो कागज स्वर्ग के साक्षी रहे होंगे
क्योंकि वह चिट्टियां बुजुर्गों ने आज तक संभाल के रखी हैं
बड़ा याद आता गुजरा हुआ दौर है
अपना नहीं अभी सफ़र में हर कोई और है
प्रवीण माटी