जज्बातों का क्या?
उमड़ घुमड़ के उठ रहे
जज्बातों का क्या?
दमितों पर हो रहे अत्याचार के
सवालातों का क्या?
निरा खामोश बन निरीह मानव,
निगलने को आतुर वे सब के सब दानव,
वे कर रहे रोज कृत्य व खात्मे की क्रिया,
नहीं हो पा रहा क्रिया पर कोई प्रतिक्रिया,
छल कपट से भरी उउनकी सारी जिंदगी,
वे चाहते हैं मुफ्त का सम्मान संग बंदगी,
नित खबर बन रही रिपुओं से
उनकी मुलाकातों का क्या?
भौंहें टेढ़ी कर रहे वे घोड़ी पर चढ़ जाने से,
संयम नहीं दिखा पाते किसी के मूंछें रख जाने से,
विश्वासपात्र बन रहे नहीं अतिआत्मविश्वास वाले,
घिसी पिटी नीतियों पर रखते हैं तर्क निराले,
बैठे ठाले बेकारों को क्या पता पांव के छाले,
सम-समता की बात करो तो मुंह इनके लगते ताले,
मत छेड़ो सोये अजगर को यदि मचल वो जाएगा,
मिट जाएगा वजूद सोच लो यदि निगल वो जाएगा,
चार दिन वंचितों की जिंदगी जी देखो
समझो मतलब है इन जातों का क्या?
दमितों पर हो रहे अत्याचार के
सवालातों का क्या?
उमड़ घुमड़ के उठ रहे
जज्बातों का क्या?
— राजेन्द्र लाहिरी