ग़ज़ल
ग़म में ही सुन पलती रही ज़िंदगी।
कुछ हमें न देखो दे सकी ज़िंदगी ।।
लूटें लोग बढ़ ही खुद इस जहां में।
करे करम कभी हम पर भी ज़िंदगी।।
दिया किसी को महल, कुटिया किसी को।
गढ़े सभी का नसीब यही ज़िंदगी।।
काँटे भर दिये किसी दामन में ही।
भरे फूल झोली में सही ज़िंदगी।।
देख नश्तर चुभोती सदा ही रही।
( फूल की सेज होती नहीं ज़िंदगी। )
रास आती नहीं बेवफ़ाई हमें।
खेल कैसे यही खेलती ज़िंदगी।।
चँगुल में इसके तुम तो आना नहीं।
पलट पासा तुम्हें जीतनी ज़िंदगी।।
— रवि रश्मि ‘अनुभूति*