गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

कभी मिल के रोने को जी चाहता है
कभी दिल भिगोने को जी चाहता है

कभी भावनाओं की दरिया में बह कर
समंदर में खोने को जी चाहता है

कोई गोद ऐसी मिले जैसी मां की
लिपट कर के सोने को जी चाहता है

बड़ी नफरतें हैं खुदाया जहां में
यहां प्यार बोने को जी चाहता है

बहुत हो गया पुण्य को आजमाते
कि अब पाप धोने को जी चाहता है

बिखरती ही जाती है दुनिया दिनोदिन
इसे फिर संजोने को जी चाहता है

— ओम निश्चल

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