शब्द-संधान : शब्दों के सम्यक् प्रयोग का विवेचन करती पुस्तक
शब्द केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, अपितु जीवन के संगीत और रचनात्मकता के राग का प्रतीक भी होते हैं। अर्थ की धरोहर लिए हुए ये शब्द न केवल लोक-चेतना को परिष्कृत करते हैं, बल्कि उसे परिमार्जित भी करते हैं। हम जानते हैं कि परस्पर पर्याय होने के बावजूद शब्दों के अर्थ में सूक्ष्म भिन्नताएँ होती हैं। यह भिन्नता, किसी शब्द के पद या वाक्य में सम्यक् प्रयोग से पाठक के मन-मस्तिष्क में एक सजीव चित्र की भांति अर्थ का अंकन करती है। जहाँ उपयुक्त शब्द-प्रयोग रचना की गुणवत्ता को सरसता और प्रवाह के साथ पाठकों तक पहुँचाता है, वहीं अनुचित एवं अनुपयुक्त शब्द-प्रयोग न केवल अर्थ के प्रकटीकरण में बाधा डालता है, बल्कि कई बार हास्यास्पद स्थितियाँ भी उत्पन्न कर देता है।
लेखन में शब्दों के शुद्ध, सार्थक और उपयुक्त प्रयोग की आवश्यकता पर बल देती पुस्तक ‘शब्द-संधान’ इन दिनों साहित्य प्रेमियों और शब्द साधकों के बीच चर्चा का केंद्र बनी हुई है। यह कृति न केवल विद्वज्जनों, साहित्यिक मनीषियों, विद्यार्थियों और शिक्षकों के लिए उपयोगी है, अपितु सामान्यजन के लिए भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है। विशेष रूप से यह पुस्तक उन व्यक्तियों के लिए अपरिहार्य है, जिनका कार्य संवाद और संप्रेषण से जुड़ा है, जैसे– मीडिया कर्मी, राजनेता, वकील, रंगमंचीय कलाकार, उपदेशक, संत इत्यादि।
‘शब्द-संधान’ केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि सार्थक अभिव्यक्ति और शुद्ध संप्रेषण की दिशा में एक मार्गदर्शिका है। पुस्तक की विषयवस्तु तीन खंडों में विभाजित है। खंड (क) शब्द-संधान, खंड (ख) शब्द-संधान के सूत्र तथा खंड (ग) शब्द-संकलन। प्रथम खंड में शब्दों के उचित प्रयोग पर 100 अध्यायों में विस्तृत विवेचन मिलता है। प्रत्येक अध्याय में समानार्थी, समानोच्चारित तथा लेखन एवं बोलचाल में सामान्यतः व्यवहृत ऐसे शब्दों को लिया गया है, जिनके प्रयोग में प्रायः त्रुटि होती है, जैसे– अनुदित और अनूदित, शैक्षिक और शैक्षणिक, सपत्नीक और सपत्नी; नृत्त और नृत्य, बुद्धि, मेधा, प्रज्ञा और प्रतिभा, पुरुष और परुष; कठिन और कठोर, स्वागतम् और सुस्वागतम् , अनभिज्ञ, अभिज्ञ, अज्ञ, विज्ञ और ज्ञ, खोज, गवेषणा, शोध, आविष्कार और अनुसंधान, जयंती और जन्मोत्सव, सृजन और सर्जन का पेंच, कृति, कृत्ति और कृती, कोटि, श्रेणी और वर्ग, अनशन, उपवास, व्रत और भूख हड़ताल इत्यादि। इन सौ अध्यायों में सम्मिलित और विवेचित शब्द पाठक के सम्मुख उनकी पूरी अर्थवत्ता के साथ उपस्थित होते हैं, जिससे अर्थ एवं प्रयोग की दृष्टि से महीन अंतर भी सुस्पष्ट हो जाता है।
अनुभूत सत्य है कि न केवल लोकजीवन के परस्पर मौखिक संवाद में अथवा वार्ता के क्रम में, अपितु लेखन में भी साहित्यिकों द्वारा बहुधा त्रुटिपूर्ण शब्द व्यवहृत होते हैं, जिसके कारण व्यक्त भाव अनर्थकारी हो जाते हैं। उदाहरण के लिए– अर्थी और अरथी समानोच्चारित होने के बावजूद अर्थ में बड़ा अंतर रखते हैं। असावधानी या अज्ञानवश इनका अनुचित प्रयोग अर्थसिद्धि में समर्थ नहीं हो सकता, यह समझना चाहिए। विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि पाठक इन सौ अध्यायों से गुजरते हुए शब्द-सम्पदा अर्जित करता चलता है और भाषा-संवर्धन के प्रति उसका अनुराग भी बढ़ता जाता है। लेखक का मत है– “सटीक अथवा समुपयुक्त शब्द-प्रयोग से ही किसी भाषा का प्राण-तत्व अक्षुण्ण रहता है।” निश्चित ही, शब्दों के साधु और सुसंगत सम्यक् प्रयोग एवं व्यवहार से ही भाषा की सम्प्रेषणीयता प्रभावी होती है और वह लालित्यपूर्ण एवं सहज प्रवाहमयी बनती है।
द्वितीय खंड (ख) के अंतर्गत आठ अध्याय जहाँ अपनी शब्द-सुवास से पाठकों के मन-मस्तिष्क को सुरभित करते हैं, वहीं बुद्धि के कपाट खोल अचम्भित भी करते हैं कि कैसे कुछ शब्द अपने सन्निहित अर्थ के विपर्यय अर्थ में प्रयुक्त हो, हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न कर देते हैं। उदाहरण के लिए, कृष्णा और सूर्या को ही लीजिए। बच्चों को बड़ों द्वारा लाड़-दुलार से पुकारे जाने वाले ये दोनों शब्द प्रायः हमारे पड़ोस में मिल जाते हैं। अभिभावकों को नहीं ज्ञात होता कि कृष्णा का अर्थ द्रौपदी है, कृष्ण नहीं। इसी तरह सूर्या, सूरज नहीं है; बल्कि उनकी पत्नी का नाम है। उपरोक्त तो अपने शुद्ध रूप ‘उपर्युक्त’ को बहुत पीछे धकेल लगभग हर शासकीय-विभागीय आदेश-पत्रों में महिमा मंडित हो रहा है। ऐसे ही पत्रों और रपटों में उल्लिखित ‘दिनाँक’ मानो भाषाविदों को चिढ़ा रहा हो, जिसे दिनांक होना चाहिए था। साम्यता, औदार्यता, सौंदर्यता, स्तनपान, गोकशी, समंदर, स्वादिष्ट, नवरात्रि, अभ्यारण्य, अंतर्ध्यान आदिक अशुद्ध शब्द जन-मानस में भाषिक सजगता की अपेक्षा करते हैं। इन आठ अध्यायों में लोकजीवन में कुछ बहु प्रचलित शब्दों तथा देशज-विदेशज शब्दों के निर्माण की वार्तनिक यात्रा अंकित है। अंतिम खंड (ग) में पर्यायवाची, विलोम तथा श्रुति-सम भिन्नार्थक शब्दों की विस्तृत सूची दी गई है जिसमें क से त्र वर्ण तक के 351 शब्दों के पर्यायवाची शब्द, 600 विलोम शब्द तथा 460 श्रुति-सम भिन्नार्थक शब्दों की सूचिका पाठकों के लिए शब्दों के अर्थ का विस्तृत फलक प्रदान करती हैं।
पुस्तक ‘शब्द-संधान’ पढ़ते हुए लगता है कि जैसे कोई शिक्षक अपने स्नेहपात्र विद्यार्थियों के सम्मुख शब्द-रचना के सूत्रों को चित्र-पट पर प्रकाशित कर रहा हो। मेरे पास हिंदी व्याकरण एवं शब्दकोश की एक दर्जन पुस्तकें होंगी; पर भाषाविद् एवं वैयाकरण कमलेश कमल की कृति ‘शब्द-संधान’ अपनी शोधपरक अंत:सामग्री, सम्यक् शब्द विवेचन एवं अर्थ-स्पष्टता तथा रुचिपूर्ण शैली के कारण मुझे अत्यंत महत्त्वपूर्ण लगती है। यह शब्दों के शुद्ध-अशुद्ध उलझाव का संजाल ऐसे काट देती है, जैसे घने बादल को प्रकाश की किरण। भाषिक-जटिलता का व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करती अनुपम कृति ‘शब्द-संधान’ विद्यार्थियों, अध्यापकों एवं सामान्य पाठकों के लिए तो बहूपयोगी है ही, साथ ही लेखकों-संपादकों के लिए भी अत्यावश्यक और मार्गदर्शक है। मुझे विश्वास है, ‘शब्द संधान’ अपने ध्येय में सिद्ध हो शब्दानुशासन के नवल पथ की सर्जना कर भाषा संरक्षण एवं सम्वर्द्धन का रुचिर रसमय परिवेश रचेगी। आकर्षक कवर के साथ प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा दिसम्बर 2024 में प्रकाशित ‘शब्द संधान’ प्रकाशन के पूर्व ही ऑनलाइन प्लेटफार्म पर शीर्ष पुस्तकों में शुमार हो गई थी। नेचुरल शेड पीले कागज के 304 पृष्ठों में बिखरी शब्द-संपदा प्रत्येक परिवार में होनी चाहिए ताकि हिंदी भाषा के परिष्कार एवं समृद्धि की वेगवती धारा सतत प्रवाहमयी रहे।
— प्रमोद दीक्षित मलय
कृति : शब्द-संधान
लेखक – कमलेश कमल
प्रकाशक – प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य – ₹500/-