धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ग्राम्य लोक-संस्कृति की परम्परा में भुर्री का महत्व

किसी कवि ने क्या खूब कहा है –
“गाँव की माटी को सूँघो,
गंध को एक नाम दे दो।”
एक मुस्कुराती सुबह दे दो,
एक सुहानी शाम दे दो।।”

उक्त चरितार्थ पंक्तियों के सम्बंध में कुछ इस तरह की बातें कही जा सकती हैं कि तीन पहर का दिन और चार पहर की रात का सुहाना संगम छत्तीसगढ़ के ग्राम्य अंचलों में दिखता है। यहाँ के लोग पूरे बारहों महीने पसीनेतर कमाई से कभी नहीं घबराते। तप्त ऋतु की भीषण गर्मी हो, पावस की मूसलाधार बारिश हो, चाहे शीत की कड़कड़ाती ठंड हो, सब एक बराबर होते हैं इनके लिए। गर्मी और बारिश का सामना करते हैं और ठंड से वे तनिक नहीं डरते। हर स्थिति में अपने भीतर उष्णता बनाए रखते हैं; चाहे खानपान, पहनावा या फिर चाहे और कोई बाह्य स्रोत जैसे- चुल्हे की आग, गोरसी की खरखराती धीमी आँच या फिर पैरा या झिटका की दहकती आँच अर्थात भुर्री।

भुर्री तापना एक परम्परा
भुर्री, यहाँ के लोगों के द्वारा आग तापने की परंपरा है। अत्यधिक ठंड पड़ने पर ग्रामीण अँचल के लोग छोटी–छोटी लकड़ियाँ (चिल्फा) इकट्ठा कर गोरसी या चूल्हे में जलाकर धीमी–धीमी आँच से शरीर की सिकाई करते हैं और शरीर में गर्माहट पैदा करते हैं। यह परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। गाँव में प्रायः बड़े-बुजुर्ग सूर्योदय से पहले ही जब चहुँओर शीत की बूँदें बरसने लगती हैं; सुबह उठ कर चूल्हे या गोरसी में छेना, चिल्फा या फिर कोयला डालकर आग सुलगाते हैं; जलाते हैं। आग सूर्य के रंग जैसा प्रतीत होती है, मानो सूर्य के बीच की चमकती हुई आभा चूल्हे में उतर कर मन को प्रफुल्लित करती हुई देह की सिकाई कर रही हो।
आग के अंगारे मद्धम–मद्धम दगते हैं। धीमी–धीमी आँच पड़ने पर बड़ा सुकून मिलता है। ठंड के दिनों में बड़े बुजुर्गों के अलावा बच्चे, युवा व बुजुर्ग सभी साथ में बैठकर भुर्री का आनंद लेते हैं।

भुर्री देती नसीहतें
गाँव का रहन–सहन देखकर मन आनंदित हो उठता है। यहाँ बात भुर्री की है, तो मुझे बताते हुए खुशी हो रही है कि सिर्फ एक परिवार के सदस्य ही नहीं बल्कि पास-पड़ोस के लोग भुर्री का हिस्सा बनते हैं। इससे लोगों में प्रेम-भाव बना रहता है। आज भी लोग गाँव में एकत्रित होते हैं और अपने–अपने जीवन की बातें एक–दूसरे से साझा कर ठहाके लगाते हैं। भुर्री तापते लोगों में भ्रातृत्व दिखता है, एकता नजर आती है।
लोग खेत–खलिहान से आकर शाम के समय जल्दी से भोजन कर चौराहे या फिर किसी के घर–आँगन में बैठ भुर्री का आनंद लेते हैं। छोटे–छोटे बच्चे, बड़े बुजुर्गों की बातें कान लगाकर बहुत ध्यान से सुनते हैं और आनंद लेते हैं। लोगों के बीच घर-परिवार एवं खेत-खलिहान की बातें होती हैं। विचारों का आदान-प्रदान होता है। एक-दूसरे का शोर-संदेश मिलता है। भुर्री लोगों में परस्पर सामंजस्य स्थापित करती है।
उक्त बातें कहना ज़रा भी गलत नहीं होगा कि भुर्री लोगों को एक–दूसरे से जोड़ने की सीख देती है। गाँव में कोई भी व्यक्ति अकेले भुर्री का लुत्फ उठाते नज़र नहीं आएगा, कम से कम पाँच–छः लोग दिखेंगे ही। बड़े-बुजुर्गों का ख्याल रखते हुए कई बच्चे छोटी–छोटी लकड़ियाँ इकट्ठा करते हैं, ताकि शाम को आग जला कर पास बैठ सकें। भुर्री तापने के लिए बच्चे बहुत ही उतावले होते हैं। होंगे भी क्यों नहीं; आखिर उन्हें साथ बैठने और बातें सुनने का आनंद जो मिलता है।
हमारे छत्तीसगढ़ के देहात-अंचल में गीत , कविता, कहानी-कंथली व लोकोक्ति-मुहावरे इन भुर्री तापते लोगों से सुनने को मिलते हैं। बड़े बुजुर्ग बातों ही बातों में बहुत से मुहावरे वगैरह प्रयोग करते हैं; जिससे बच्चों को आसानी से सीखने को मिलता है। अच्छी–अच्छी सीख घर के बड़े लोगों के पास बैठने से ही मिलती है।
कहीं-कहीं लोगों के द्वारा तैयार की गई भुर्री से बेजु़बानों को भी लाभ मिल जाता है। आग खपने के बाद जब लोग वहाँ से उठकर चले जाते हैं तब कुत्ते, बिल्ली या गाय आकर बैठ जाते हैं। इससे उन्हें भी ठंडी से राहत मिलती है।
हमारे छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में भुर्री के फायदे लोग बहुत अच्छे से जानते हैं। आज भी बहुतायत तो नहीं, लेकिन भुर्री का उपयोग किया ही जाता है। स्वेटर, शॉल की उन्हें ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती, शाम और सुबह जरूर भुर्री ताप कर ठंड भगाते हैं।

भुर्री को सहेजने की जरूरत
‌‌ आजकल गाँवों में भी लकड़ी, छेना या कोयला सहज सुलभ उपलब्ध नहीं हो पाता। कारण है पेड़–पौधों की कटाई, पशुपालन का कम होना, खेतों में मकान बनना इत्यादि। इसका असर ज्यादातर ग्रामीण परिवेश में देखने को मिलता है। लोग अब अपनी सुख-सुविधा के चलते शहरों की ओर बढ़ते जा रहे हैं। गाँव-देहात छूटता जा रहा है। कुछ सालों बाद ऐसा होगा कि गाँवों में सिर्फ बुज़ुर्ग ही दिखाई देंगे; युवावर्ग नहीं। जो लोग भुर्री के बारे में जानते हैं, वे शहरों में गोरसी बनाकर इसका उपयोग करते हैं, करेंगे क्यों नहीं; आखिर अपने गाँव की मिट्टी में पले–बढ़े हैं।
आजकल भुर्री तापने की परम्परा ही सिमट कर रह गई है। स्वेटर, शॉल व कम्बल ने इनकी जगह ले ली है पर मेरा मानना है कि क्यों न हम शहरों में भी रह कर भुर्री का उपयोग करें, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी भी इसे जाने; समझे और इससे लाभान्वित हो। इससे हम अपनी मिट्टी से जुड़े रहेंगे। मुझे एक कवि की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं-
“सौंधी महक मिट्टी की,
वो पगडंडी वाले गाँव।
ताल-तलैया स्वच्छ पानी,
वो वट-पीपल की छाँव।।
तुलसी-चौरा आँगन का,
वो गौरैये का चींव-चाँव।
खोर-गली बिजली खम्भा
वो घर-द्वार ठाँव-ठाँव।।”

— प्रिया देवांगन “प्रियू”

प्रिया देवांगन "प्रियू"

पंडरिया जिला - कबीरधाम छत्तीसगढ़ [email protected]

Leave a Reply