ध्यान की सुगमता, व्यापकता व आवश्यकता
ध्यान वर्तमान समय में बहु प्रयुक्त शब्द है। इसकी चर्चा केवल योग और आध्यात्म के क्षेत्र में ही नहीं चिकित्सां व सामान्य जीवन में भी बड़े पैमाने पर की जा रही है। पिछले सप्ताह अपने विद्यालय के काउंसलर महोदय के अभिलेख पर नजर गई, वे अधिकांश विद्यार्थियों को ध्यान(Meditation) की सलाह देते हैं। अभी तक योग, अध्यात्म और चिकित्सा के क्षेत्र से मेडीटेशन की बात सुनता रहा हूँ। काउंसलर के अभिलेख को देखकर मैं सोचने को मजबूर हो गया कि क्या वास्तव में जितना इस शब्द का प्रयोग किया है, उतना इसका प्रयोग भी किया जा रहा है? क्या हम इस शब्द का सही अर्थ भी समझते हैं? इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
महर्षि पतंजलि द्वारा प्रस्तुत अष्टांग योग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि में ध्यान सातवां है, जो समाधि से पूर्व की अवस्था है। योग का सर्वोच्च शिखर समाधि है। समाधि से पूर्व ध्यान का स्थान होना ही इस शब्द के महत्व को दर्शाता है। ध्यान की बात अध्यात्म में आवश्यक रूप से होती है। ईश्वर का ध्यान लगाने या ध्यान लगाकर कुण्डलिनी जाग्रत करने की बातें हमें प्रवचनों में सुनाई जाती रहीं हैं। योग में ध्यान का अर्थ कोई विचार न होना अर्थात विचारशून्य अवस्था से लिया जाता है। यह अत्यन्त दुष्कर, दुर्लभ, दुर्गम और महत्वपूर्ण अवस्था मानी गई है। विचार-शून्यता की स्थिति सामान्य व्यक्ति के लिए लगभग असंभव मानी जाती है। मन-मस्तिष्क विचारविहीन केवल दो ही स्थितियों में हो सकता है, मृत्यु या योग की चरमावस्था या परम योग की अवस्था। ध्यान के उपरांत समाधि का ही स्थान माना गया है, जिसमें आत्मा का परमात्मा के साथ अभेद हो जाना माना जाता है। इस प्रकार ध्यान शब्द जितना प्रचलित है, व्यवहार में उतना ही मुश्किल है।
पिछले सप्ताह ओशो के प्रवचनों पर आधारित पुस्तक भीतर का दीया में इस शब्द का बड़ा ही सरल, व्यावहारिक व उपयोगी अर्थ मिला। वह निःसन्देह ध्यान की व्यापकता को रेखांकित करता है। ओशो के विचार में ध्यान केवल किसी विशेष समय या उपासना के समय की जाने वाली क्रिया नहीं है। ध्यान हर समय प्रति पल की जाने वाली क्रिया है। ध्यान का आशय स्नान करके किसी विशेष समय पर विशेष आसन में कोई विशेष धार्मिक क्रिया से नहीं है, वरन हर क्षण, हर कार्य को संपूर्णता से करना है। हम जो भी कर रहे हैं, उस क्रिया को पूर्ण निष्ठा व समर्पण के साथ किया जाना ही ध्यान हैं। यदि हम खाना खा रहे हैं, तो खाने पर ही ध्यान रहे अन्य कोई विचार न करें; यही साधना है। यदि खेत में काम कर रहे हैं तो खेत में ही रम जाएं। यदि अध्ययन कर रहे हैं तो अध्ययन ही करें कोई अन्य विचार न आए। पत्नी के साथ हैं तो पत्नी के साथ ही रहें। ओशो इसी ध्यान की अवस्था की बात करते हुए ही तो संभोग से समाधि की बात करते हैं। जिस क्रिया में हम लगे हैं, उसी पर पूर्णतः ध्यान। उस समय और कोई विचार न होना ही ध्यान की अवस्था है। हम जिस समय जो क्रिया कर रहे हैं, उसी क्रिया में केन्द्रित होकर डूब जाना ही ध्यान है। इस प्रकार हम 24 घण्टे अपने कर्म में केन्द्रित होकर विचारशून्यता की स्थिति को प्राप्त करते हुए ध्यान की अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। निःसन्देह अपने कर्म में इस प्रकार की तल्लीनता हमें अपने कर्म में निष्ठा और समर्पण की पराकाष्ठा होगी और वह कर्म ही पूजा बन जाएगा। गीता में निष्काम कर्म इसे ही कहा गया है। काण्ट इसी को कर्तव्य के लिए कर्तव्य (Duty for duty’s sake) कहते हैं। इस नीतिशास्त्रीय सिद्धांत का व्यावहारिक प्रयोग ध्यान को व्यापक रूप से आचरण का भाग बनाकर ही किया जा सकता है।
ओशो का ध्यान का यह दृष्टिकोण ध्यान को अधिक व्यापक, सुगम और अभ्यास योग्य बना देता है। इसके अनुसार हम हर समय ध्यान का अभ्यास कर सकते हैं। इस प्रकार हर समय ध्यान का अभ्यास करते रहने से हमारा हर कर्म पूजा हो जाएगा। हर कर्म ही साधना होगा। प्रत्येक कार्य ध्यान का आधार होने के कारण प्रत्येक कार्य की गुणवत्ता में सुधार होगा। हम न केवल अपने मन को ध्यान के लिए प्रशिक्षित करने में सफल होंगे, वरन व्यावहारिक जीवन में हर क्षेत्र में कुशलता भी प्राप्त करेंगे।