गांव का राही शहर के पथिक
मौत के बिस्तर पर पड़े
उम्र के उस मोड़ पर
कब शरीर साथ हमारा
छोड़ दे,
बच्चे तो साथ नहीं
उनके रुतबे के हिसाब नहीं
एक नौकरानी सेवा में लगी
दुनियां को दिखाने के लिये,
खामोशीयों की चादर में
पुराने यादों खोना चाहता हूं
असल जिंदगी से थक गया
अब जी भरके सोना चाहता हूं
मगर मौत पर किसका जोर,
कल मौत आज से
बचपना दिखने लगा
मानों मौत से
सच में पाला पड़ने लगा,
बचपन की हर यादें
चित्रपट पर चलने लगा,
मां की आंचल से लेकर
बाबूजी के कंधे तक
दादी के कहानी में
जानवर की बातचीत,
कल्पनाओं की दुनियां में
मौत के दरवाजे पर खड़ा
मुस्कुरा रहा हूं,
सच मरने की खुशी मना
रहा हूं
दादी आसमान की ओर
उंगली करके सुनाती
मरने के बाद
वही लोग जाते है,
अब मैं कल से दादी के
पास रहूंगा,
एक भ्रम रहेगा कि
वहां कोई मुझे
अंजान तो नहीं समझेगा,
गांव का राही हूं
शांत जिंदगी और कुछ नहीं
जीने के लिये उम्मीद लेकर
शहर की ओर निकल गया
चैन भरे रैन बसेरा को छोड़कर
गांव से बाहर निकल पड़ा,
शहर जाते वक्त आखरी बार
गांव को ऐसे देखा जैसे
आज छोड़कर जा रहा हूं
जैसे ही फुर्सत मिलेगा
कल ही मिलने आ जायेंगे
अपने प्यारे गांव से,
शहर आते ही
दौड़ भरे जिंदगी में
भागना शुरू किया
इंसानो को कुचल कर
खुद को तरक्की के राह पर
लेकर चला,
संघर्षों के हाथों में
खुद घड़ी की सुई
बन गया,
बचपन के दोस्त
गरीब सा लगने लगे थे,
थोड़ी सी अमीरी क्या हुआ
अपने सगे भी
बोझ सा लगने लगे
क्या बहन क्या भाई
सब हुयें पराये,
कभी गांव की याद
में खो जाते थे
अब गांव का नाम नहीं
पता हैं,
पगडंडियों की राहों पर
चलना सीखा था
अब चौड़े सड़क
की आदत हो गई हैं,
परिवार बुला लिया
शहर में
आ जाओ सारे सुख
एक साथ मिलते एक घर में,
हजार गज की जमीन पर
खुद का घर हो गया
सच में गांव का आंगन भी
इससे छोटा हो गया,
मेरे गांव का आंगन
खुले आसमान सा हुआ करता
सुबह चिड़िया जगाया करती
अब इधर बिना अलार्म के
जिंदगी दौड़ती,
याद आता वह महुआ का पेड़
आम लूटने का खेला खेल,
कच्चे कुओं की पूर पर
पानी भी पिया हूं
सच कहें
चिट्ठी वाले युग से लेकर
इमेल तक जी लिया हूं,
बैठकर चोंगे वाले फोन
के इंतज़ार में
बाबू जी से खुश होकर
बात किया हूं,
बाबू जी परदेश रहे
अपनी मिट्टी जड़ से जुड़े रहे
मैं ही अभागा
उनके मौत पर
एक रिश्तेदारों सा गया,
अब अपने आखरी सांस में
खुद को पराया कर दिया,
उज्जवल भविष्य हो बच्चों के
अपने जड़ को
मिट्टी से अलग कर दिया,
संस्कार और संस्कृति
की अभाव में ना जाने कितने
ऐसे मर रहे होगें,
जो मिट्टी से जुड़ा होगा
उनकी किस्मत क्या होगा
दौलत से बड़ा औलाद उनके
साथ आखरी सांस
तक खड़ा होगा,
शरीर पर सफेद कपड़े
समझो कफन ओढ़ लिया हूं,
बचपन में जिस गांव के मिट्टी
का प्रेमी बना रहा,
उससे कही दूर मिट्टी में
मिल रहा हूं,
आखरी पल में
अपनो के कंधो पर
जाने का इच्छा किसे नहीं
दुःख हुआ देखकर
किराये के कंधे देने वाले
खुद के लोग एक बूंद
आँसू नहीं बहा रहे हैंl
— अभिषेक कुमार शर्मा