विवेकानन्द जयन्ती पर विशेष- क्यों? का नहीं, कर्म करने का अधिकार
स्वामी विवेकानन्द का कार्य अभी भी पूरा नहीं हुआ है। स्वामी जी की जयन्ती पर हम उनके सपनों को साकार करने के लिए काम करने का संकल्प कर सकें, इसके लिए उनके सपनों को याद कर आत्मसात करने की आवश्यकता है। स्वामी जी के सपनों को उनके साहित्य में पढ़ा जा सकता है, किन्तु उन्हें समझने और आत्मसात करने के लिए अत्यन्त पवित्र, निस्वार्थ व सच्चे हृदय की आवश्यकता है। स्वामी जी का कार्य अभी भी अपूर्ण है और उनके कार्य को पूर्ण करने के लिए संसार में हजारों व्यक्ति अपने-अपने तरीके से विभिन्न प्रकार से लगे हुए हैं। उनके अनुयायी अनेक प्रकल्पों के माध्यम से अविरल काम कर रहे हैं। विष् के अन्तिम मानव तक स्वामी जी के सेवा कार्य की भावना को पहुँचाने व उसे कार्य रूप में परिवर्तित करने के लिए लाखों व्यक्तियों के समर्पण व निष्ठा की आवश्यकता है। पत्रावली के प्रथम भाग के संदर्भ में स्वामी जी के अनुसार, ‘विस्तार ही जीवन है और संकोच मृत्यु; प्रेम ही जीवन है और द्वेष मृत्यु।’ स्वामीजी के शेष कार्य को पूर्ण करने के लिए हमें अपना विस्तार करते हुए मानवता के साथ एकाकार करना होगा। हमें अपने जीवन को सार्थक करने के लिए द्वेष भाव को तिलांजलि देकर प्रेम को आत्मसात करना होगा। प्रेम भी किसी एक व्यक्ति को नहीं, मानवता को प्रेम करते हुए मानवता के लिए जीना होगा।
स्वामी जी के आलोचक उनकी आलोचना करते हुए कहते हैं कि स्वामी जी ने संन्यासी होते हुए भी आध्यात्मिक साधना के स्थान पर जन सेवा का कार्य किया। स्वामी जी के कार्यो को देखते हुए उन्हें समाज सेवक भी कहा जा सकता है। यही नहीं भारत की संस्कृति व भारतीय गौरव को स्थापित करने के लिए स्वामीजी ने जो काम किया, उसे देखते हुए उन्हें देशभक्त संन्यासी कहा जाता है। निःसन्देह स्वामीजी ने आध्यात्मिक साधना की अपेक्षा नर सेवा-नारायण सेवा के सूत्र पर काम किया। स्वामीजी ने अपना विस्तार संपूर्ण मानवता तक कर लिया था। स्वामी जी सभी के दुख-दर्द को अपना दुख-दर्द समझते थे।
स्वामी जी ईसा मसीह और महात्मा बुद्ध की अक्सर चर्चा करते थे। उन्होंने उन्हीं की भाँति भारतीयों के दुख दूर करने के लिए काम किया। स्वामी जी ने तो अपनी मुक्ति के मोह को भी त्याग दिया था। स्वामी जी जैसी महान आत्मा केवल अपनी मुक्ति के लिए काम कैसे कर सकती थी। केवल अपनी मुक्ति के लिए साधना करना तो स्वार्थ की साधना हो गई। जो स्वामी जी जैसे पर दुख कातर महान व्यक्तित्व को कैसे स्वीकार हो सकती थी।
स्वामी जी व्यर्थ के वाद-विवाद में विश्वास नहीं करते थे। वे केवल और केवल काम करने पर अपना ध्यान केन्द्रित करते थे। वे आलोचना करने में विश्वास नहीं रखते थे। वे काम करने में विश्वास रखते थे। वे वेदांत के अनुयायी थे। उसके बावजूद उन्होंने कभी भी मूर्ति पूजा की आलोचना नहीं की। स्वामी जी ने सभी महापुरुषों के बताए गए रास्तों को ईश्वर की उपासना के मार्ग के रूप में स्वीकार किया। स्वामी जी देशभक्त संन्यासी थे, जिन्होंने आलोचना के स्थान पर समन्वय का काम किया। यही कारण था कि दूसरे मतों के अनुयायी भी स्वामी जी के अनुयायी बनते चले गए। स्वामी जी ने भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत ही समन्वय सूत्रों को नहीं खोजा, उन्होंने पाश्चात्य और भारतीय संस्कृति में भी समन्वय करते हुए एक-दूसरे के लिए पूरक घोषित किया। स्वामी जी ने भारत के लिए पाश्चात्य संस्कृति से सीखते हुए विकास पथ पर आगे बढ़ने का सुझाव दिया तो पाश्चात्य संस्कृति के लिए भारतीय आध्यात्मिकता को आवश्यक बताया। यही कारण था कि वे भारतीय ही नहीं विश्व की मानवता के द्वारा स्वीकार किए गए।
पत्रावली के प्रथम भाग में स्वामी जी का कथन है- ‘व्यर्थ का असंतोष जताते हुए शक्तिक्षय करने के बदले हम चुपचाप, वीरता के साथ काम करते चले जाएं।’ स्वामी जी की ये पंक्तियाँ हमें कर्म के मार्ग पर आगे बढ़ते रहने के लिए प्रेरित करती हैं। हमें समझना होगा कि समय सबसे अधिक कीमती और दुर्लभ संसाधन है। कार्योपयोगी समय ही जीवन है। जिस समय को सेवा के कामों में उपयोग कर लिया। वास्तव में वही जीवन है।
हम लोगों की प्रवृत्ति अधिक सोचने और कम काम करने की रहती है। अधिक सोचने(Over Thinking) की प्रवृत्ति न केवल हमारा समय बर्बाद करती है, वरन हमें चिंताग्रस्त करते हुए अनेक मानसिक विकारों की ओर भी धकेलती है। जब हम स्वयं के काम पर ध्यान केन्द्रित करने की अपेक्षा व्यर्थ की टीका-टिप्पणी करते हुए दूसरों की आलोचना करते हैं। हम अपना समय ही नष्ट नहीं करते, वरन अपनी कार्यक्षमता का ह्रास भी करते हैं। इसी कारण स्वामी जी हमें सीधे सच्चे मन से कर्म करने का आदेश देते हुए पत्रावली के प्रथम भाग में लिखते हैं- ‘क्यों?- यह प्रश्न करने का हमें अधिकार नहीं, हमें तो अपना कार्य करते-करते प्राण छोड़ने हैं(Ours is not to reason why, ours but to do and die) । इस प्रकार स्वामी जी हमें कर्म करने की प्रेरणा देते हुए गीता में कर्मयोगी कृष्ण के संदेश, ‘हमारा कर्म पर अधिकार है, फल पर नहीं।’; को हमारे सामने रखते हैं। स्वामी जी ने स्थान-स्थान पर ईसा मसीह, महात्मा बुद्ध और तत्कालीन कर्मयोगी और प्रबंधन गुरु श्री कृष्ण के माध्यम से भी हमारा मार्गदर्शन किया है।
वर्तमान में स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती पर पुनः उन्हें स्मरण करते हुए उनके कायों को स्मरण करने की आवश्यकता है। स्वामी जी को स्मरण करके उनके प्रति सम्मान व्यक्त कर देने मात्र से काम नहीं चलेगा। हम वास्तव में स्वामी जी का सम्मान करते हैं तो उनके बताए हुए मार्ग पर चलकर उनके द्वारा जो कार्य प्रारंभ किए गए थे। उनको आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। स्वामी जी द्वारा किए गए कार्य अभी तक अधूरे पड़े हैं। स्वामी जी द्वारा भारत के जिस सांस्कृतिक वैभव की कल्पना की थी। जिस प्रकार भारत के भौतिक विकास की कल्पना की थी। भारत के अन्तिम व्यक्ति के विकास की जो कल्पना की थी। मानव के दुखों को दूर करने के लिए काम करते हुए अपने जीवन को होम कर दिया था। वह काम अभी भी अधूरा है। स्वामी जी को स्मरण करने की ही नहीं उनके द्वारा प्रारंभ किए गए कामों को करने की आवश्यकता है।