पुस्तक समीक्षा

पाँसा : मध्य वर्ग की संघर्ष गाथा

 परिवार भारतीय समाज की धुरी है I सुदृढ़ पारिवारिक व्यवस्था के कारण भारत में अभी तक मानवीय मूल्यों का पूर्णतः लोप नहीं हुआ है I समाज निर्माण में परिवार नामक इकाई की महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन परिवार पर चारों ओर से हमले हो रहे हैं I लिव-इन-रिलेशन, तलाक के बढ़ते मामले, विवाह के प्रति उदासीनता आदि परिवार नामक संस्था के सामने गंभीर चुनौतियाँ हैं I दहेज़, घरेलू हिंसा, दहेज़ के नाम पर लोगों का उत्पीड़न आज की सच्चाई है I जो कानून लड़कियों को उत्पीड़न से बचाने के लिए बनाए गए थे उस कानून का दुरुपयोग कर पुरुषों का उत्पीड़न किया जा रहा है I इसी भावभूमि पर रूपसिंह चंदेल का उपन्यास ‘पाँसा’ आधारित है I यह उपन्यास निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के संघर्ष और उलझन की व्यथा-कथा है I परिवार, विवाह, दहेज़, मध्यवर्गीय संस्कार, धार्मिक पाखंड, कर्मकांड इत्यादि समस्याओं के इर्दगिर्द इस उपन्यास का तानाबाना बुना गया है I इसमें सरकारी कार्यालयों के भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, रिश्वतखोरी आदि का जीवंत चित्रण किया गया है I आधुनिक जीवन की त्रासदी, मानवीय मूल्यों के क्षरण, पति-पत्नी के बीच के संघर्ष, हिंदी के नाम पर होनेवाले पाखंड को भी इस उपन्यास में रेखांकित किया गया है I

   आज़ादी के उपरांत जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में गिरावट आयी है, लेकिन शिक्षा जगत का सर्वाधिक पतन हुआ है I भारत के विश्वविद्यालय भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, जातिवाद और रिश्वतखोरी की सडांध से बजबजा रहे हैं I विश्वविद्यालयों की काली दुनिया का सच बहुत कम लोगों को ज्ञात हो पाता है I सरकारें बदल जाती हैं, परंतु व्यवस्था यथावत चलती रहती है I शैक्षिक गिरावट और शोध की दशा–दिशा वास्तव में चिंता का विषय होना चाहिए, लेकिन इस पर सर्वत्र सन्नाटा व्याप्त है I जब तक विश्वविद्यालयों के नियुक्ति तंत्र की जड़ पर प्रहार नहीं किया जाता तब तक शिक्षा के स्तर में सुधार की कोई संभावना नहीं है I भारत के विश्वविद्यालयों में अधिकांश नियुक्तियां प्रबंधन कौशल और मठाधीशों की कृपापूर्ण अनुशंसाओं के आधार पर होती हैं I नियुक्तियों में प्रत्याशी की मेधा नहीं देखी जाती, बल्कि यह देखा जाता है कि किसने किस गुरुघंटाल के मठ में कितना चढ़ावा चढ़ाया है I अपनी मेधा के बल पर जो व्यक्ति क्लर्क नहीं बन सकता है वह अपने प्रबंधन कौशल के बल पर विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक बनकर युवा पीढ़ी के मानस में कचरा भरता रहता है I इन मेधाहीन प्रोफेसरों से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एवं शोध की अपेक्षा करना ही हास्यास्पद है I कपटपूर्ण और बेईमान व्यवस्था में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एवं स्तरीय शोध की उम्मीद करना किसी प्रहसन से कम नहीं है I ‘पाँसा’ में विश्वविद्यालयों में व्याप्त बेईमानी और जातिवाद का प्रभावशाली चित्रण किया है I इस उपन्यास में विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों की काली करतूतों, शोध के नाम पर हो रहे शोषण और नियुक्ति तंत्र का कच्चा चिट्ठा खोला गया है I विश्वविद्यालयों में पी-एच.डी. की मंडी सजी है I यह एक खुला सच है कि पी-एच.डी. कराने के लिए छात्र-छात्राओं का भयानक शोषण किया जाता है I छात्राओं का तो आर्थिक के साथ-साथ दैहिक शोषण भी किया जाता है I उपन्यास में विश्वविद्यालयों के शोध छात्रों के शोषण चक्र को बेपर्दा करने के साथ-साथ प्रोफेसरों की काली करतूतों का पोस्टमार्टम भी किया गया है I

   ‘पाँसा’ उपन्यास में भारत की अनेक ज्वलंत समस्याओं का यथार्थपरक विश्लेषण किया गया है I भारत-पाकिस्तान के रिश्ते, भारत की आतंकवादी घटनाओं के पीछे पाकिस्तान के हाथ का जीवंत चित्रण किया गया है I नमिता पाकिस्तान की हरकतों के बारे में कहती है-

“वह एक ऐसा देश है जिसकी सरकार की शह पर आतंकवाद पनपता है I दुनिया के कितने ही देशों में हुए आतंकवादी हमलों में पाकिस्तानी कनेक्शन पाया गया I उन आतंकवादियों को प्रशिक्षण और साधन पाकिस्तान ने ही दिए I” ‘पाँसा’ में निम्न मध्यवर्गीय परिवार के बच्चों के सपने, उनके संघर्ष और घुटन का बहुत सजीव वर्णन किया गया है I कामकाजी पति-पत्नी को बच्चे पालने में जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है उसे अरुण के माता-पिता के संघर्ष से समझा जा सकता है I उपन्यास में प्रकाशन और लेखन से जुडी समस्याओं का भी चित्रण किया गया है I भारत में प्रकाशक लेखकों का भरपूर शोषण करते हैं I प्रकाशकों ने पुस्तकों की कितनी प्रतियाँ बेंची और कितना माल बनाया यह लेखक कभी जान ही नहीं पाता I प्रकाशन व्यवसाय में पारदर्शिता का नितांत अभाव है I उपन्यास में सरकारी विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी की कलई खोली गई है I उपन्यासकार ने सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार पर कशाघात किया है I अग्निहोत्री कहते हैं-‘’विदेश मंत्रालय में खरीद होती है I वहाँ एक अधिकारी हैं ज्वाइंट सेक्रेट्री पद पर-खरीद योजना उनके अधीन है I प्रकाशकों को उनके बारे में जानकारी है I बड़े प्रकाशक उनके घर पहुँच जाते हैं I” अग्निहोत्री का संकेत था कि सरकारी खरीद कमीशन और रिश्वतखोरी के आधार पर की जाती है I

   कथा प्रवाह और जिज्ञासा ‘पाँसा’ उपन्यास का प्रमुख गुण है I ‘पाँसा’ की कथावस्तु आम आदमी के दैनिक जीवन से जुडी हुई है I आम आदमी अपने दैनिक जीवन में जिन समस्याओं  और कठिनाइयों से जूझता है उन स्थितियों को उपन्यास में जीवंत कर दिया गया है I उपन्यास में जगदीप, रुद्रेश, नमिता, संदीप, अरुण आदि के संघर्ष, द्वंद्व, कठिनाइयों और उलझनों का सजीव चित्र प्रस्तुत किया गया है I उपन्यास में सामाजिक विद्रूपताओं और विसंगतियों पर निर्मम प्रहार किया गया है I समर सिंह जैसे बदतमीज, पाखंडी, छल-प्रपंच में माहिर व्यक्ति हर गली-मोहल्ले में मिल जाते हैं I रुद्रेश, जगदीप, अरुण जैसे निर्मल हृदय के भोले-भाले और संवेदनशील व्यक्तियों का सामना समर सिंह जैसे पाखंडी और बदमिजाज व्यक्ति से होता है जिसने अपनी बेटी निवेदिता को भी अपने ही रंग में ढाल दिया है I रुद्रेश, अरुण, नमिता झगडा-झंझट, वाद-विवाद और ईर्ष्या-द्वेष से दूर रहते थे, लेकिन निवेदिता ने उनके शांत जीवन में उथल-पुथल मचा दिया I जब निवेदिता के माता-पिता कोरोना के शिकार हो गए और वह बेसहारा हो गई तो अंतत: उसे अरुण की शरण में आना पड़ा I

   आज़ादी की लड़ाई में असंख्य लोगों ने आत्मोत्सर्ग किया, लेकिन इतिहास में सबसे अधिक श्रेय महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू को दिया जाता है I यह तथ्यात्मक रूप से गलत और पक्षपातपूर्ण इतिहास लेखन का उदाहरण है I ‘पाँसा’ में इतिहास की इस आधी-अधूरी सच्चाई को भी बेनक़ाब किया गया है I उपन्यासकार ने मिथ्यापरक इतिहास को उजागर किया है-“आज़ादी के लिए हजारों युवक शहीद हुए, लेकिन आज़ादी का सेहरा गांधी और नेहरू के सिर बाँध दिया गया I शहीदों को कोई याद नहीं करता I भगतसिंह और उनके सथियों को शायद किसी विवशता में याद किया जाता है I पटेल का कोई नाम नहीं लेता और नेताजी के नाम पर चुप्पी है I” रोचकता और कथात्मकता ‘पाँसा’ उपन्यास का प्राण तत्व है I इस उपन्यास के  पात्र कल्पना लोक के निवासी नहीं, बल्कि ये आम जन-जीवन से लिए गए हैं I इसलिए इन पात्रों में सभी मानवोचित दुर्बलताएं और स्खलन मौजूद हैं I यह औपन्यासिक कृति यथार्थ जीवन से प्रेरित है I उपन्यासकार ने जीवन की पाठशाला में बैठकर इस उपन्यास को आकार दिया है I ऐसा लगता है कि इस उपन्यास में घटित घटनाएँ घर-घर की कहानी का बयान करती हैं I

   उपन्यास में हिंदी की दशा-दिशा पर भी गंभीर टिप्पणी की गई है I विश्व हिंदी सम्मेलनों में सरकार के हजारों करोड़ रुपयों का अपव्यय होता है, लेकिन इन सम्मेलनों की उपलब्धियां शून्य रही हैं I ये सम्मेलन खुशामदी लेखकों, दीन-हीन हिंदी अधिकारियों एवं प्रबंधन कला में पारंगत बुद्धिजीवियों के लिए विदेश भ्रमण का सुनहरा मौका मात्र है, इससे अधिक इसकी कोई सार्थकता नहीं है I अभी तक हिंदी की गंगा को कोई भगीरथ नहीं मिला है जो उसे धरती पर ले आए I विश्व हिंदी सम्मेलन में संकल्प पारित किए जाते हैं कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनायी जाए I जब हिंदीभाषी प्रदेशों में ही हिंदी राजकाज की भाषा नहीं बन सकी है तो फिर संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की मांग करने का कोई औचित्य नहीं है I वही बात हुई कि अपनी माँ का सम्मान मत करो, लेकिन उम्मीद करो कि दूसरे लोग उसे सम्मानित करें I इस संदर्भ में उपसचिव का कथन राजभाषा के नाम पर हो रहे नाटक की पोल खोलता है-“ऐसा नहीं कि उन्हें अंग्रेजी आती नहीं, लेकिन उनका कहना है कि गृह मंत्रालय और शिक्षा मंत्रालय यदि हिंदी को लेकर उदासीन रहेंगे तब इस देश में हिंदी का कभी भी विकास नहीं होगा I हम संयुक्त राष्ट्र में हिंदी की माँग कर रहे हैं, लेकिन अपने देश में ही हम उदासीन हैं I”

   दहेज़ प्रथा के कारण भारत में अनेक परिवार तबाह हो जाते हैं I दहेज़ को रोकने के लिए सरकार ने कानून बनाए हैं, लेकिन समर सिंह जैसे लोभी उस कानून का दुरुपयोग कर लड़केवाले का शोषण और उत्पीड़न करते हैं I दहेज़ विरोधी कानून के कारण हजारों युवक और उसके परिवारवालों का उत्पीड़न किया जाता है तथा हजारों निर्दोष लोग जेलों में बंद हैं I ‘पाँसा’ में दहेज़ विरोधी कानून से उत्पन्न पारिवारिक संकट एवं विद्रूपताओं का बेबाक चित्रण किया गया है I शादी को जुआ कहा जाता है I लड़की और लड़का दोनों के लिए शादी एक जुआ है I यदि जोड़ी अनुकूल हुई तो स्वर्ग अन्यथा कलह, झगडे, तलाक और जीते जी नरक का सामना I दहेज़ प्रथा की जड़ों को मजबूत करने के लिए कन्या पक्ष भी उत्तरदायी है I अनेक लड़केवाले बिना दहेज़ के शादी करना चाहते हैं, लेकिन लड़कीवाले की महत्वाकांक्षा एवं प्रदर्शनप्रियता के कारण ऐसा नहीं हो पाता है I समर सिंह की सोच में युगीन सच्चाई है-

“आजकल एक आई.ए.एस. की कीमत एक करोड़, डॉक्टर की पचास लाख और इंजीनियर भी चालीस के बिक रहे हैं I अच्छे इंस्टिट्यूट के एम.बी.ए. की कीमत भी कम नहीं I” दहेज़ के बाज़ार में खूब मोल-भाव होता है मानों रिश्ता नहीं हो रहा हो, बल्कि घोड़े की खरीद-बिक्री हो रही हो I दहेज़ देश की एक प्रमुख समस्या है I दहेज़ की आग में असंख्य लडकियाँ जल रही हैं I  भारतवासी एक ओर कन्या पूजन का ढ़ोंग करते हैं तो दूसरी ओर दहेज़ के लिए बहुओं को आत्महत्या करने के लिए मजबूर करते हैं I सरकार ने दहेज़ को रोकने के लिए क़ानून बनाया I अब उसी कानून का दुरुपयोग कर निर्दोष लोगों का उत्पीडन किया जा रहा है I

   आधुनिकता की आँधी और पाश्चात्य प्रभाव के कारण विवाह नामक संस्था के सम्मुख गंभीर चुनौती उपस्थित हो गई है I विवाह के बाद पति-पत्नी दोनों को कुछ समझौते करने पड़ते हैं, एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना पड़ता है, लेकिन आत्मनिर्भर लडकियाँ और लड़के दोनों किसी प्रकार समझौता नहीं करना चाहते हैं I इसलिए समाज में पति-पत्नी के बीच वैमनस्य और तलाक के मामले बढ़ते जा रहे हैं I यदि किसी लड़की को समर सिंह जैसा पिता मिल जाता है तो उसका घर बसने से पहले ही उजड़ जाता है I समर सिंह की पत्नी राजवंती भी अपनी पुत्री के नखरे को बढाने का ही काम करती है I निवेदिता की माँ राजवंती ने कहा, “अरुण में न केवल एक रूखापन है, बल्कि पारिवारिक जीवन क्या होता है वह नहीं जानता I अब अफ़सोस हो रहा है कि हमने उस घर में तुम्हें ब्याह कर गलती की I”

   उपन्यासकार ने सज्जन और दुर्जन पात्रों की सृष्टि कर उनकी जिजीविषा, आशा-आकांक्षा, अनुराग-विराग, हर्ष-विषाद आदि को वाणी दी है जिसके कारण समकालीन मनुष्य की अच्छाई-बुराई उभरकर सामने आयी है I कथोपकथन मनुष्य की अंतरात्मा में झांकने का अवसर प्रदान करता है I कथोपकथन के द्वारा ‘पाँसा’ उपन्यास का तानाबाना बुना गया है I इस उपन्यास में संवादों का कुशलता के साथ प्रयोग किया गया है I कथोपकथन के माध्यम से उपन्यास के प्रमुख पात्रों के मन में चल रहे ऊहापोह को आकार दिया गया है I कथोपकथन के द्वारा उपन्यास के विभिन्न पात्रों के मनोभावों, मनोविकारों, छटपटाहट, आत्मसंघर्ष को वाणी दी गई है I जो बात कथाकार सीधे नहीं कह सकता है वह उपन्यास के पात्रों के माध्यम से कहलवा देना इस औपन्यासिक कृति का वैशिष्ट्य है I यही शैली इस उपन्यास को विशिष्ट बनाती है I कथोपकथन का एक उदाहरण द्रष्टव्य है जो अरुण और निवेदिता के मन का दर्पण है-

ज्वाइन करने का मेल मिलने के बाद उसने यह बात निवेदिता को बताते हुए कहा, “डार्लिंग, हम जल्दी ही नोएडा वापस लौटेंगे I”

“कम्पनी वहाँ भेज रही है ?”

“नहीं, मैंने कम्पनी से त्यागपत्र दे दिया है I”

“क्या …….?” चीखी निवेदिता I

“इसमें चीखने की क्या बात है I मैंने यह कम्पनी छोड़ दी है I नई कम्पनी ज्वाइन करूँगा I”

“नई ? नोएडा में ?”

“तुम आश्चर्य क्यों व्यक्त कर रही हो ?”

“क्योंकि मुझे हैदराबाद पसंद आ गया है I”

“यहाँ क्या ख़ास है ? सभी अपरिचित हैं I वहाँ अपने लोग हैं I”

“अपने लोग—I” निवेदिता ने अपने को रोक लिया I

इस संवाद के द्वारा निवेदिता और अरुण के चरित्र पर प्रकाश पड़ता है I इससे प्रकट होता है कि निवेदिता घोर स्वार्थी, आत्मकेंद्रित और बिगडैल लड़की है जबकि अरुण संस्कारशील और दूसरों का ख्याल रखनेवाला युवक है I

   रूपसिंह चंदेल के उपन्यास ‘पाँसा’ में समकालीन जीवन-जगत के घात-प्रतिघात, छल-प्रपंच, सामाजिक व धार्मिक पाखंड पर चोट की गई है I इस उपन्यास की कहानी आम घरों की कहानी है I प्रतिदिन हमारी आँखों के सामने से ये कहानियाँ गुजरती हैं और ऐसी घटनाओं से हमारा अक्सर साक्षात्कार होता है I हिंदी के वरिष्ठ कथाकार रूपसिंह चंदेल समाज के अंतिम  व्यक्ति की व्यथा-कथा को आकार देते हैं I मानवतावादी स्वर इनकी सभी कथाकृतियों का स्थायी भाव है I इस उपन्यास के पात्र कल्पना लोक के निवासी नहीं, बल्कि यथार्थ जीवन से गृहीत हैं I उपन्यासकार ने इस उपन्यास में सामाजिक विद्रूपताओं पर गहरा प्रहार किया है I इसमें बिखरते जीवन मूल्यों, टूटते परिवारों, दरकते रिश्तों, शून्य होती संवेदनाओं का प्रभावशाली चित्रण हुआ है I ‘पाँसा’ में आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया गया है जिसके कारण इस उपन्यास में व्यक्त संदेश पाठकों के अंतर्मन में सहजता से उतर जाते हैं I

पुस्तक-पाँसा

लेखक-रूपसिंह चंदेल

प्रकाशक-श्रीसाहित्य प्रकाशन, दिल्ली

वर्ष-2024

मूल्य-450/-

*वीरेन्द्र परमार

जन्म स्थान:- ग्राम+पोस्ट-जयमल डुमरी, जिला:- मुजफ्फरपुर(बिहार) -843107, जन्मतिथि:-10 मार्च 1962, शिक्षा:- एम.ए. (हिंदी),बी.एड.,नेट(यूजीसी),पीएच.डी., पूर्वोत्तर भारत के सामाजिक,सांस्कृतिक, भाषिक,साहित्यिक पक्षों,राजभाषा,राष्ट्रभाषा,लोकसाहित्य आदि विषयों पर गंभीर लेखन, प्रकाशित पुस्तकें :1.अरुणाचल का लोकजीवन 2.अरुणाचल के आदिवासी और उनका लोकसाहित्य 3.हिंदी सेवी संस्था कोश 4.राजभाषा विमर्श 5.कथाकार आचार्य शिवपूजन सहाय 6.हिंदी : राजभाषा, जनभाषा,विश्वभाषा 7.पूर्वोत्तर भारत : अतुल्य भारत 8.असम : लोकजीवन और संस्कृति 9.मेघालय : लोकजीवन और संस्कृति 10.त्रिपुरा : लोकजीवन और संस्कृति 11.नागालैंड : लोकजीवन और संस्कृति 12.पूर्वोत्तर भारत की नागा और कुकी–चीन जनजातियाँ 13.उत्तर–पूर्वी भारत के आदिवासी 14.पूर्वोत्तर भारत के पर्व–त्योहार 15.पूर्वोत्तर भारत के सांस्कृतिक आयाम 16.यतो अधर्मः ततो जयः (व्यंग्य संग्रह) 17.मणिपुर : भारत का मणिमुकुट 18.उत्तर-पूर्वी भारत का लोक साहित्य 19.अरुणाचल प्रदेश : लोकजीवन और संस्कृति 20.असम : आदिवासी और लोक साहित्य 21.मिजोरम : आदिवासी और लोक साहित्य 22.पूर्वोत्तर भारत : धर्म और संस्कृति 23.पूर्वोत्तर भारत कोश (तीन खंड) 24.आदिवासी संस्कृति 25.समय होत बलवान (डायरी) 26.समय समर्थ गुरु (डायरी) 27.सिक्किम : लोकजीवन और संस्कृति 28.फूलों का देश नीदरलैंड (यात्रा संस्मरण) I मोबाइल-9868200085, ईमेल:- [email protected]

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