झूठी जिद
“कब से रोए जा रही है गुड़िया। कैसी मां हो? जब देखो रुलाती रहती हो।”
मालती जी बहू सुमन को डांटती रहती। गुड़िया शह पाकर और जोर-जोर से रोती। बाबूजी भी कमरे से निकलकर बाहर आ जाते और मालती जी की हां में हां मिलाते। अमोल अपने मां बाबूजी को कुछ न कह पाता।
गुड़िया जिद्दी होती जा रही थी। जो चाहिए दादा दादी से मिल जाता। न सुनने की आदत ही नहीं थी।
वह उद्दंड हो रही थी। आज सारा खाना उसकी पसंद का बना हुआ था, लेकिन होटल से मंगवा कर ही खाना था उसे। मुँह फुलाकर बैठी थी। दादा जी होटल से खाना उसकी फरमाइश के हिसाब से मंगवा ही रहे थे कि सुमन ने उन्हें टोंक दिया। पहली बार कड़े शब्दों में सबके सामने गुड़िया को डांटा, एक चपत भी लगा दी।
“हद कर दी आपने। पसंदीदा खाना बना हुआ है, फिर भी होटल से ही मंगवाना है उसके लिए?
झूठी जिद पूरी करने से वह जिद्दी होती जा रही है ना।”
गुस्से से तमतमाई सुमन को देख गुड़िया सहम गयी।
थाली में खाना लेकर चुपचाप खाने लगी।