गीतिका/ग़ज़ल

हो गए

आलम तो चमचागीरी का भी देखिए जनाब,
मिलते ही उनसे मियां चारपाई हो गए।

कल तक नयन में शूल जैसे धॅंस रहे थे जो
कुर्सी की चाह,आज सगे भाई हो गए।

छूरे से गला काटते, रहजन थे जो कभी,
बदला है वक्त जब से,सभी नाई हो गए।

परिवारवादी दल हैं लोकतंत्र में गजब,
मेंबर बने तो मर्द भी लुगाई हो गए।

अब प्यार-मोहब्बत की कोई उम्र न रही,
सिग्नल मिला तो बूढ़,वाई फाई हो गए।

जिनकी नजर में देश की कीमत नहीं है कुछ,
वो धर्म-संविधान के रानाई हो गए।

जिनको समझ रहे थे हम पर्वत की चोटियां,
पर्दा हटा तो सारे शिखर खाईं हो गए।

समता-समानता कहां है संविधान में,
जो बाग के बबूल थे, अमराई हो गए।

जिसने पिता की परवरिश को मान न दिया,
पहले थे काश्मीर अब भिलाई हो गए।

मां को रुलाने वाले बस इतना खयाल रख,
जो मां की दुवा लिए रोशनाई हो गए।

— सुरेश मिश्र

सुरेश मिश्र

हास्य कवि मो. 09869141831, 09619872154

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