दोहे
धार्मिक
चित्रगुप्त जी आप तो, करते अपना काम। पाप पुण्य हम जो करें, वैसा लिखते नाम।।
राम नाम की आड़ में, करे खूब हम पाप।
फिर भी होता है कहाँ, हमें आज संताप।।
ईश्वर की इतनी कृपा, है अपना सौभाग्य।
बदहाली के दौर मे, बदला सब कुछ हाय।।
विविध
अभी भीड़ भारी बड़ी, खुद का दो सब ध्यान। पावन होगी भावना, तब निश्चित कल्याण।।
बिटिया ने तो कर दिया, ऊंचा मेरा भाल।
बड़े गर्व से आज मैं, बजा रहा निज गाल।।
तेरी हर उपलब्धियाँ, बढ़ा रही हैं मान। नित नूतन जारी रहे, तेरा ये अभियान।।
लगाव
हम लगाव की बात का, पीट रहे हैं ढोल।
पर अंतस की भावना, खोल रही है पोल।।
महाकुंभ के ज्वार में, बढ़ता दिखे लगाव।
सत्य सनातन असर का, ये सारा प्रभाव।।
अपने भी रखते नहीं, अब तो आज लगाव।
स्वार्थ भावना संग में, चला रहे निज नाव।।
करते बात लगाव की, मन में रखकर भेद।
मौका केवल ढ़ूँढ़ते, करना उनको छेद।।
नहीं हमें अब रह गया, थोड़ा बहुत लगाव।
मौका मिलते दे रहे, आज बड़ा हम घाव।
ईश्वर की इतनी कृपा, बदल गई है चाल।
यह लगाव है ईश से , हुआ आज खुशहाल।।
विनम्र श्रद्धांजलि
नहीं रहीं जब ब तू धरा, तब भी इतनी आस।
सदा रहेगी पास माँ, इतना है विश्वास।।
छोड़ गई जब धरा को, तब भी देना साथ।
शीष हमारे माँ सदा, रखना अपना हाथ।।
शीष झुकाकर हम करें, नमन तुझे शत बार।
दिया आपने जो हमें, अतुलनीय आधार।।
पटल आपका है ऋणी, कैसे हो उद्धार।
सदा संभाले ही रहो, संरक्षण का भार।।
संरक्षक पद पर आपका, सदा रहेगा नाम।
हर चिंता से मुक्त हो, रहो ईश के धाम।।
प्रभाव
सत्ता के प्रभाव का, आज दिख रहा रंग।
जिसकी जैसी भावना, वैसा पाता संग।।
महाकुंभ का देखिए, इतना बढ़ा प्रभाव।
नव प्रभात में दीखता, हमको नहीं दुराव।।
जैसी जिसकी भावना, वैसे उसके बोल।
बिना किसी सुर-ताल के, पीट रहा वो ढोल।।
जिसका जैसा आचरण, वैसा दिखे प्रभाव।
हम और आप जानते, किसका कैसा घाव।।
मातु पिता का अब नहीं, रहा कोई प्रभाव।
उनके दिल से पूछिए, कितना किसका चाव।।
मौन अमावस्या
मौन अमावस्या कहे, सुनो लगा कर ध्यान।
गंगा में डुबकी लगा, कर लो थोड़ा दान।।
मौन सीख है दे रहा, करना सबको स्नान।
करना पूजा पाठ भी, ओर साथ में दान।।
माघ मास में ही सदा, होता पावन स्नान।
प्रेम भाव से मन बसा, संगम तट का ध्यान।।
कल्प वास की साधना, माघ मास में ध्यान।
नदी किनारे देखिए, पावन धर्म विधान।।
अमृत पाने के लिए, जो थे बड़े अधीर।
दुर्घटना के बाद भी, जन को देते पीर।।
अहंकार
अहंकार के मोह में, फँसे हुए जो लोग।
असमय वो हीभोगते, जब-तब भारी रोग।।
रावण भी मारा गया, अहंकार की ओट।
ज्ञानी वो इतना बड़ा, तब भी खाया चोट।।
कँस को इतना था बड़ा, जाने क्यों अभिमान।
अहंकार का उसे भी, नहीं हो सका ज्ञान।।
अहंकार देती जला, पर्वत और पहाड़।
फिर हमको क्यों लग रहा, देंगे उसे पछाड़।।
अहंकार का कब भला, हुआ बताओ आप।
इसे छोड़ अब कीजिए, मित्र धैर्य का जाप।।
भगदड़
नासमझी में हो गई, भगदड़ बीती रात।
कुछ लोगों के प्राण की, गई खत्म जस बात।।
जाने किसके कोप का, भगदड़ है परिणाम।
महाकुंभ का नाम ले, करते हैं बदनाम।।
मानव की निज भूल का, कैसा है ये दण्ड।
समझ नहीं आया हमें, भगदड़ टूटा खण्ड।।
संगम तट पर मच गया, जब भगदड़ का शोर।
जाने कितनों के लिए, हुआ नहीं फिर भोर।।
नेताओं को मिल गया, मुद्दा एक भी और।
छिपकर भगदड़ आड़ में, मचा रहे हैं शोर।।
*सृजन शब्द- तट
संगम तट पर हर घड़ी, आती भारी भीड़।
जैसे बसने के लिए, यहीं बनेगा नीड़।।
पावन तट नदिया लगे, दिखता है उल्लास।
नजर जिधर भी डालिए, लगता खासमखास।
संगम तट पर अब नहीं, भगदड़ का है दंश।
जितना जिसके भाग्य में, पाता उतना अंश।।
भगदड़ हो या भीड़ हो, नहीं किसी को चैन।
लगता जैसे सभी का, संगम तट प्रिय रैन।।
तट पर संगम के बड़ी, भारी भीड़ अपार।
दरश राम का संग में, करता जग संसार।।