दोहे- धर्म
नित चिल्लाते हम सभी, धर्म चीखता नाम।
नहीं शेष अब लग रहा, आज और भी काम।
हमको कितना ज्ञान है, खेल रहे हम खेल।
उहापोह के गोद में, धर्म हुआ बेमेल।।
कितना हमको है पता, धर्म- कर्म का ज्ञान।
मन प्राणी की पालना, यही कर्म की जान।
लोभ मोह से दूर रह, पायें निज का मान।
यही बड़ा है धर्म का, सबसे सुंदर ज्ञान।।
हम ही करते हैं नहीं, पालन अपना धर्म।
लोभ मोह मद में फँसे, कलुषित करते कर्म।
हम सब कब हैं मानते, अपनी कोई भूल।
बेंच चुके निज सभ्यता, ओढ़े पाप दुकूल।।
मानव सेवा भाव का, सबसे उत्तम काम।
साथ करें हम आप भी, जाप ईश का नाम।मातु पिता गुरु से बड़ा, और नहीं कुछ धर्म।
इनके चरणों में मिले, तीर्थ-राज निज-मर्म।।