धरती के शृंगार का पर्याय बसंत पंचमी
“ऋतु बसंत की देखकर, करे धरा शृंगार।
डाल डाल पर गुल खिले,भ्रमर करें इज़हार।।”
प्राचीन काल में भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था क्योंकि भारत में काफी धन संपदा,प्राकृतिक संसाधन,रत्न, खनिज और सोना था। इसी तरह भारत अपनी सांस्कृतिक धरोहर में अत्यंत समृद्ध रहा है। भारत निज संस्कृति की अलग पहचान बनाए हुए है। यहाँ अनेक प्रकार की विभिन्नता होते हुए भी एकता दृष्टव्य है। भारत त्योहारों का देश कहलाता है। भारतीय धर्म में हर तीज-त्योहार के साथ अपनी दिलचस्प परंपराएं,रीतिरिवाज, मान्यताएँ भी जुड़ी हुई हैं। यहाँ हर माह ही नहीं हर दिन कोई न कोई खास व्रत और त्योहार मनाया जाता है। हिंदू धर्म में वसंत या बसंत पंचमी विशेष महत्त्व रखता है। इस दिन वाणी और विद्या की देवी माता सरस्वती की पूजा की जाती है। बसंत पंचमी को देवी सरस्वती के जन्मदिन के रूप में भी माना जाता है।
“नये जोश नये होश में फिर से आ गया है वसंत
रंग-बिरंगे फूलों से आँगन सजाने आ गया है वसंत
ज्ञान की देवी माँ सरस्वती का जन्मदिवस मनाने
कण-कण को सुशोभित करने आ गया है वसंत।”
बसंत पंचमी, बसंत ऋतु की शुरुआत का प्रतीक माना जाता है। बसंत का त्योहार हिंदू लोगों में पूरी जीवंतता और हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाता है। हिंदी भाषा में, “बसंत / वसन्त” का अर्थ है ” बसंत” और “पंचमी” का अर्थ है पाँचवें दिन। अर्थात सरल शब्दों में हम कह सकते हैं कि बसंत पंचमी को बसंत ऋतु के पाँचवें दिन के रूप में मनाया जाता है। बसंत पंचमी भारतीय महीने के पाँचवें दिन माघ (जनवरी-फरवरी) में आती है। इस त्योहार को सरस्वती पूजा के नाम से भी जाना जाता है।
बसंत पंचमी शीत ऋतु के अंत का और बसंत के आगमन का प्रतीक है। प्राचीन काल में बसंत पंचमी के दिन सरस्वती माँ की पूजा करके बच्चों का नामकरण संस्कार होता था। तत्पश्चात बच्चे गुरुकुल में दीक्षा प्राप्त करने जाते थे। एक मान्यता के अनुसार इस त्योहार में बच्चों को प्रथम शब्द लिखना सिखाया जाता है। बसंत ऋतु का त्योहार ज्ञान की देवी सरस्वती को समर्पित है।
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार,देवी कला,बुध्दि और ज्ञान के निरंतर प्रवाह का प्रतीक है। बसंत पंचमी का त्योहार विशेष रूप से शिक्षण संस्थानों में मनाया जाता है। सरस्वती विद्या की देवी हैं,अतः छात्र-छात्रा माँ सरस्वती से आशीर्वाद प्राप्त करके अपने ज्ञान भंडार को समृद्ध करने की कामना करते हैं।
बसंत पंचमी का त्योहार विशेष महत्त्व रखता है। लोग नए-नए कपड़े पहनते हैं और विभिन्न प्रकार के पकवानों का जायका लेते हैं। बच्चे आसमान में पतंग उड़ाते हैं और विभिन्न खेल खेलते हैं। इस त्योहार पर लोग आमतौर पर पीले वस्त्र पहनते हैं। बसंत का रंग पीला है,जिसे ‘बसंती’ रंग के रूप में भी जाना जाता है। यह समृद्धि,प्रकाश,ऊर्जा और आशावाद का प्रतीक है। यही कारण है कि लोग पीले कपड़े पहनते हैं और पीले रंग की वेशभूषा में पारंपरिक पकवान बनाते हैं। इस शुभ अवसर पर तैयार किए जाने वाले पारंपरिक पकवान स्वादिष्ट होने के साथ-साथ काफी पौष्टिक और सेहतमंद भी होते हैं।
भारत के अलग-अलग राज्यों में इसे मनाने का तरीका भी अलग-अलग ही है। मगर अंततः सबके मन में ज्ञान एवं संगीत की देवी माँ शारदा का आशीर्वाद पाने की ही होती है। संगीत की देवी होने के कारण सभी कलाकार इस दिवस को बहुत शुभ मानते हैं और माँ सरस्वती की पूजा करते हैं।
ऐसी मान्यता है कि इस दिन सुबह-सुबह बेसन के उबटन के स्नान करना चाहिए,उसके बाद पीले वस्त्र धारण कर माँ सरस्वती की पूजा-अर्चना करनी चाहिए और पीले व्यंजनों का भोग लगाना चाहिए। पीला रंग वसंत ऋतु का प्रतीक माना जाता है और यह धारणा है कि माता सरस्वती को पीला रंग पसंद भी है।
भारत में सभी शिक्षण-संस्थानों में सरस्वती-पूजा बहुत धूम धाम से की जाती है। पूरे रीति-रिवाज से शिक्षण-संस्थानों में विधिवत पूजा-अर्चना सम्पन्न कराई जाती है। बच्चे इस दिन बहुत ही उत्साहित रहते है। इसके अतिरिक्त जगह-जगह पर पंडाल बनाकर भी पूजा होती है। पंडालों में बड़ी-बड़ी मूर्तियां विराजमान की जाती है व बड़े-बड़े आयोजन आयोजित किए जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे माँ सच में धरती पर उतर आयीं हों और अपने वरदहस्त की बरसात कर रही हो। संगीत एवं ज्ञान की देवी सरस्वती की पूरे देश में पूजा अर्चना की जाती है। अक्सर लोग घरों में पीले रंग के पकवान का सेवन करते हैं। सभी लोग त्योहार को बड़े आनंद और उत्साह के साथ मनाते हैं। इस शुभ दिन पर बच्चों को पढ़ने और लिखने के लिए तैयार किया जाता है। इसे ज्ञान और ज्ञान की देवी सरस्वती के साथ सीखने की एक शुभ शुरुआत माना जाता है।
वसंत पंचमी का सांस्कृतिक,धार्मिक और सामाजिक महत्व बहुत अधिक है क्योंकि यह प्रकृति के नवीनीकरण और नई शुरुआत का प्रतीक है।पतझड़ के बाद वसंत के आगमन का संकेत प्रकृति के बदलते परिवेश से लगने लगता है। वसंत के आने पर पेड़-पौधों में हरे-हरे पत्ते,नई डालियाँ और नई-नई कलियाँ आने लगती हैं। बाग़-बगीचों में फूल खिलने लगते हैं और खेतों में पीले-पीले सरसों के फूल लहराने लगते हैं। इस ऋतु के आने पर सर्दी कम हो जाती है, मौसम सुहावना हो जाता है,आम के पेड़ बौरों से लद जाते हैं। प्रकृति के दुल्हन से श्रृंगार के साथ ही वासंती बयार भी बहने लगी है। वसंत ऋतु मानव जीवन और बाह्य जगत में नई चेतना, सुंदरता,समरसता और खुशहाली का वातावरण लाती है। इसलिए इसे ऋतुराज कहते हैं। मनुष्य ही नहीं,अन्य जीव-जन्तु,पेड़-पौधे भी खुशी से नाच रहे होते हैं। चहुँओर फूलों की महक से वातावरण सुगन्धित हो उठता है। खेतों में सरसों अपने यौवन पर होती है। ऐसा लगता है मानो धरा ने पीली साड़ी पहन ली हो। आम के पेड़ बौरा जाते हैं। कोयल अपनी मीठी आवाज़ से सबके मन को मोह लेती है। इस समय मौसम बहुत ही सुहावना हो जाता है। इस दिन कोई भी शुभ काम शुरु करने का सबसे शुभ मुहूर्त माना जाता है।
वसंत पंचमी का दिन बहुत ही शुभ माना जाता है। वसंत पंचमी से पाँच दिन पहले से ही वसंत ऋतु का आरंभ माना जाता है। चारों ओर हरियाली और खुशहाली का वातावरण छाया रहता है। ज्योतिष के मुताबिक बसंत पंचमी का दिन काफी शुभ माना जाता है इसलिए इस दिन को अबूझ मुहूर्त के तौर पर भी जाना जाता है। इस दिन किसी भी शुभ काम को करने के लिए मुहूर्त देखने या पंडित से पूछने की जरूरत नहीं पड़ती। इस दिन पीले रंग का वस्त्र पहनकर पूजा करना भी शुभ होता है। बसंत पंचमी का दिन शादी के बंधन में बंधने के लिहाज से भी बहुत शुभ माना जाता है। इसके अलावा गृह प्रवेश से लेकर नए कार्यों की शुरुआत के लिए यह दिन अत्यंत शुभ माना गया है।
पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने सरस्वती से खुश होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी और तब से भारत के कई हिस्सों में वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी सरस्वती की भी पूजा होने लगी जो आज तक जारी है। वैसे वसंत पंचमी के दिन विष्णु पूजा का भी महत्व है।
वैसे वसंत ऋतु प्राकृतिक सौंदर्य में निखार,मादकता और मस्ती का संगम है। प्राचीनकाल से ही वसंत लोगों का सबसे मनचाहा मौसम रहा है। इस मौसम में फूलों पर बहार आ जाती है, खेतों में सरसों का सोना चमकने लगता है,जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने लगती हैं,आमों के पेड़ों पर बौर आ जाते हैं और हर तरफ रंग-बिरंगी तितलियाँ मंडराने लगती हैं।
माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी से ऋतुओं के राजा वसंत का आरंभ हो जाता है। यह दिन नवीन ऋतु के आगमन का सूचक है। इसलिए इसे ऋतुराज वसंत के आगमन का प्रथम दिन माना जाता है। इसी समय से प्रकृति के सौंदर्य का निखार दिखने लगता है। वृक्षों के पुराने पत्ते झड़ जाते हैं और उनमें नए-नए गुलाबी रंग के पल्लव मन को मुग्ध करते हैं।
ऋतुओं का राजा वसंत रसिकजनों का भी प्रिय रहा है। प्राचीनकाल से ही हमारे देश में वसंतोत्सव,जिसे कि मदनोत्सव के नाम से भी जाना जाता है,मनाने की परंपरा रही है। संस्कृत के प्रायः समस्त काव्यों,नाटकों,कथाओं में कहीं न कहीं वसंत ऋतु और वसंतोत्सव का वर्णन अवश्य मिलता है।
वसंत पंचमी से लेकर रंग पंचमी तक का समय वसंत की मादकता,होली की मस्ती और फाग का संगीत से सभी के मन को मचलाते रहता है। जहाँ टेसू और सेमल के लाल-लाल फूल, जिन्हें वसंत के श्रृंगार की उपमा दी गई है,सभी के मन में मादकता उत्पन्न करते हैं,वहीं होली की मस्ती और फाग का संगीत लोगों के मन को उमंग से भर देता है।
प्राचीनकाल में वसंतोत्सव का दिन कामदेव के पूजन का दिन होता था। भवभूति के “श्मालती-माधव” के अनुसार वसंतोत्सव मनाने के लिए विशेष मदनोत्सव बनाया जाता था जिसके केंद्र में कामदेव का मंदिर होता था। इसी मदनोत्सव में सभी स्त्री-पुरुष एकत्र होते,फूल चुनकर हार बनाते,एक-दूसरे पर अबीर-कुमकुम डालते और नृत्य संगीत आदि का आयोजन करते थे। बाद में वह सभी मंदिर जाकर कामदेव की पूजा करते थे। आज वसंतोत्सव या मदनोत्सव का रूप बदल गया है और हम इसे होली के रूप में मनाते हैं।
यह त्यौहार सांस्कृतिक और धार्मिक महत्त्व रखता है क्योंकि यह अंधकार पर प्रकाश की विजय और प्रकृति के कायाकल्प और एक नए मौसम की शुरुआत का प्रतीक है। इस दिन से जो पुराना है वह सब झड़ जाता है। प्रकृति फिर से नया श्रृंगार करती है। टेसू के दिलों में फिर से अंगारे दहक उठते हैं। सरसों के फूल फिर से झूमकर किसान का गीत गाने लगते हैं। कोयल की कुहू-कुहू की आवाज भँवरों के प्राणों को उद्वेलित करने लगती है। मादकता से युक्त वातावरण विशेष स्फूर्ति से गूँज उठता है और प्रकृति फिर से अंगड़ाइयाँ लेने लगती है। इस समय गेहूँ की बालियाँ भी पककर लहराने लगती हैं, जिन्हें देखकर किसानों का मन बहुत ही हर्षित होता है। चारों ओर सुहावना मौसम मन को प्रफुल्लता से भर देता है।
पतझड़ के बाद वसंत के आगमन का संकेत प्रकृति के बदलते परिवेश से लगने लगता है। इस ऋतु के आने पर सर्दी कम हो जाती है,मौसम सुहावना हो जाता है,आम के पेड़ बौरों से लद जाते हैं। प्रकृति के दुल्हन से श्रृंगार के साथ ही वासंती बयार भी बहने लगी है। वसंत ऋतु मानव जीवन और बाह्य जगत में नई चेतना,सुंदरता,समरसता और खुशहाली का वातावरण लाती है। हरियाणा के कवि बसंत पंचमी के महत्त्व को इस प्रकार व्यक्त करते हैं —
“सुणों बसंत पंचमी का त्योहार सै भाई
सही कहूं यो कुदरत का ,उपहार सै भाई
पील़ी सी चादर बिछी दिखी सै खेता म्हं
बस यों ही तो सिरसूं का सिंगार सै भाई
देह म्हं फुरती तन्दरूस्ती खुद ही आवै
यो कुछ ना बस जोबन की रफ्तार सै भाई
कुछ दिन पाच्छै मस्ती म्हं फाग्गण लाग्गै
नाचण गावण नै भी सब तैयार सैं भाई।”
यह हमारी भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा ही नहीं बल्कि हमारी धार्मिक,सामाजिक और राष्ट्रीय एकता का भी प्रतीक है। पर्व किसी भी धर्म या संप्रदाय का क्यों न हो हम सभी भारतवासी उसे हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं।
यह त्योहार भारतीय धर्मों में क्षेत्र के आधार पर अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है। वसंत पंचमी होलिका और होली की तैयारी की शुरुआत का भी प्रतीक है, जो चालीस दिन बाद मनाया जाता है अर्थात वसंत पंचमी होली से चालीस दिन पहले मनाया जाता है,क्योंकि किसी भी मौसम का संक्रमण काल चालीस दिनों का होता है और उसके बाद मौसम पूरी तरह खिल जाता है।
भारत के अतिरिक्त नेपाल, बांग्लादेश,जावा,बाली,इंडोनेशिया और कई अन्य देशों में भी यह त्योहार मनाया जाता है। वसंत पंचमी से एक दिन पहले सरस्वती के मंदिरों को भोजन से भर दिया जाता है ताकि वह अगली सुबह पारंपरिक दावत में उत्सव मनाने वालों के साथ शामिल हो सकें। मंदिरों और शैक्षणिक संस्थानों में सरस्वती की मूर्तियों को पीले कपड़े पहनाए जाते हैं और उनकी पूजा की जाती है। कई शैक्षणिक संस्थान देवी का आशीर्वाद लेने के लिए सुबह विशेष प्रार्थना या पूजा की व्यवस्था करते हैं। सरस्वती के प्रति श्रद्धा में कुछ समुदायों में काव्य और संगीत समारोह आयोजित किए जाते हैं।
भारत के पूर्वी राज्यों में मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल,असम,त्रिपुरा और बिहार के राज्यों में साथ ही नेपाल में भी लोग सरस्वती मंदिरों में जाते हैं और घर पर भी देवी सरस्वती की पूजा करते हैं।पश्चिम बंगाल में यह बंगाली हिंदुओं के लिए प्रमुख त्योहारों में से एक है और कई घरों में मनाया जाता है; अधिकांश स्कूल अपने परिसर में अपने छात्रों के लिए सरस्वती पूजा की व्यवस्था करते हैं। बांग्लादेश में भी सभी प्रमुख शैक्षणिक संस्थान और विश्वविद्यालय इसे छुट्टी और एक विशेष पूजा के साथ मनाते हैं।
ओडिशा राज्य में यह त्यौहार बसंत पंचमी,श्री पंचमी,सरस्वती पूजा के रूप में मनाया जाता है। पूरे राज्य में स्कूलों और कॉलेजों में हवन और यज्ञ किए जाते हैं। छात्र सरस्वती पूजा को बहुत ईमानदारी और उत्साह के साथ मनाते हैं। आमतौर पर चार और पाँच साल के बच्चे इस दिन ‘विद्या-आरंभ’ नामक एक अनोखे समारोह में सीखना शुरू करते हैं। इसे बंगाली हिंदुओं के बीच “हाते-खोरी” के नाम से भी जाना जाता है। आंध्र प्रदेश जैसे दक्षिणी राज्यों में इस दिन को श्री पंचमी के रूप में मनाया जाता है।
वसंत पंचमी पर कुछ स्थानों पर हिंदू प्रेम के देवता काम और रति की पूजा की जाती है। वसंत पंचमी के पीछे एक और किंवदंती हिंदू प्रेम के देवता काम पर आधारित है। प्रद्युम्न कृष्ण के पुत्र के रूप में पुनर्जन्म लेने वाले कामदेव हैं। इस प्रकार वसंत पंचमी को “मदन पंचमी” के रूप में भी जाना जाता है। प्रद्युम्न रुक्मिणी और कृष्ण के पुत्र हैं । वह पृथ्वी और उसके लोगों के जुनून को जागृत करता है और इस तरह दुनिया नए सिरे से खिलती है।
बसंत पंचमी के एक ऐसे दिन के रूप में याद किया जाता है जब ऋषियों ने शिव को उनके योगिक ध्यान से जगाने के लिए कामदेव के पास पहुंचे थे। वे पार्वती का समर्थन करते हैं जो शिव को पति के रूप में पाने के लिए तपस्या कर रही हैं और शिव को सांसारिक इच्छाओं के ध्यान से वापस लाने के लिए कामदेव की मदद चाहते हैं। कामदेव सहमत हो जाते हैं और शिव को पार्वती की ओर ध्यान देने के लिए जगाने के लिए अपने स्वर्गीय गन्ने के धनुष से फूलों और मधुमक्खियों से बने बाण चलाते हैं। भगवान शिव अपने ध्यान से जागते हैं। जब उनकी तीसरी आँख खुलती है, तो कामदेव की ओर एक आग का गोला निर्देशित होता है। इच्छाओं के देवता कामदेव जलकर राख हो जाते हैं। इस पहल को हिंदू वसंत पंचमी के रूप में मनाते हैं।
वसंत पंचमी कच्छ (गुजरात) में प्रेम और भावनात्मक प्रत्याशा की भावनाओं से जुड़ी है और इसे उपहार के रूप में आम के पत्तों से सजे फूलों के गुलदस्ते और माला तैयार करके मनाया जाता है। लोग केसरिया,गुलाबी या पीले रंग के कपड़े पहनते हैं और एक-दूसरे से मिलते हैं। राधा के साथ कृष्ण की शरारतों के बारे में गीत गाए जाते हैं जिन्हें काम-रति का प्रतिरूप माना जाता है। इसे हिंदू देवता काम और उनकी पत्नी रति के प्रतीक के रूप में दर्शाया गया है ।
महाराष्ट्र,मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश में परंपरागत रूप से लोग सुबह स्नान के बाद शिव और पार्वती की पूजा करते हैं। आम के फूलों और गेहूं की बालियों का पारंपरिक रूप से प्रसाद चढ़ाया जाता है।
बिहार के औरंगाबाद जिले में सूर्य देव का मंदिर जिसे देव-सूर्य मंदिर के नाम से जाना जाता है, बसंत पंचमी के दिन स्थापित किया गया था। यह दिन इलाहाबाद के राजा ऐला द्वारा मंदिर की स्थापना और सूर्य-देव भगवान के जन्मदिन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। बसंत पंचमी के दिन मूर्तियों को धोया जाता है और उन पर पुराने लाल कपड़े बदले जाते हैं। भक्त गाते हैं, नाचते हैं और संगीत वाद्ययंत्र बजाते हैं।
बसंत पंचमी पर पतंग उड़ाना उत्तर भारत के साथ-साथ लाहौर,पाकिस्तान के आस-पास के क्षेत्र में एक लोकप्रिय कार्यक्रम रहा है। पश्चिम भारत में उत्तरायण,मथुरा में विश्वकर्मा पूजा और दक्षिण भारत में भी पतंग उड़ाना पारंपरिक है। लोग पीले कपड़े पहनकर,मीठे व्यंजन खाकर और घरों में पीले फूल सजाकर इस दिन को मनाते हैं। राजस्थान में लोगों के लिए चमेली की माला पहनना प्रथा है।
महाराष्ट्र राज्य में नवविवाहित जोड़े शादी के बाद पहली बसंत पंचमी पर मंदिर जाते हैं और प्रार्थना करते हैं। पीले कपड़े पहनते हैं। पंजाब क्षेत्र में हिंदू पीले रंग की पगड़ी या सिर की पोशाक पहनते हैं। उत्तराखंड में सरस्वती पूजा के अलावा लोग शिव-पार्वती को धरती माता और फसलों या कृषि के रूप में पूजते हैं। लोग पीले चावल खाते हैं और पीले कपड़े पहनते हैं। यह एक महत्वपूर्ण स्कूल की आपूर्ति खरीदारी और संबंधित उपहार देने का मौसम भी है।
पंजाब में बसंत को सभी धर्मों द्वारा मौसमी त्योहार के रूप में मनाया जाता है और इसे पतंगों के बसंत त्योहार के रूप में जाना जाता है। बच्चे खेल के लिए डोर और गुड्डी या पतंग खरीदते हैं। पंजाब के लोग पीले कपड़े पहनते हैं और पीली सरसों के फूलों के खेतों की नकल करने के लिए पीले चावल खाते हैं,या पतंग उड़ाकर खेलते हैं । विभिन्न त्योहारों पर पतंग उड़ाने की परंपरा उत्तरी और पश्चिमी भारतीय राज्यों में भी पाई जाती है। राजस्थान और विशेष रूप से गुजरात में हिंदू पतंग उड़ाने को उत्तरायण से पहले की अवधि से जोड़ते हैं।
वसंत पंचमी का धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्त्व :
बसंत पंचमी को लोग पीले रंग के वस्त्र पहनते हैं। आत्मा से जोड़ने वाला है पीला रंग,सादगी और निर्मलता को भी दर्शाता है। हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ मास के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को देवी सरस्वती का प्राकट्य दिवस मनाया जाता है। ग्रंथों के अनुसार इस दिन देवी सरस्वती प्रकट हुई थीं। तब देवताओं ने देवी स्तुति की। स्तुति से वेदों की ऋचाएं बनीं और उनसे वसंत राग। इसलिए इस दिन को वसंत पंचमी के रूप में मनाया जाता है। ग्रंथों के अनुसार वसंत पंचमी पर पीला रंग के उपयोग का महत्त्व है क्योंकि इस पर्व के बाद शुरू होने वाली बसंत ऋतु में फसलें पकने लगती हैं और पीले फूल भी खिलने लगते हैं। इसलिए वसंत पंचमी पर्व पर पीले रंग के कपड़े और पीला भोजन करने का बहुत ही महत्त्व है। इस त्योहार पर पीले रंग का महत्त्व इसलिए बताया गया है क्योंकि बसंत का पीला रंग समृद्धि,ऊर्जा,प्रकाश और आशावाद का प्रतीक है।अतः इस दिन पीले रंग के कपड़े पहनते हैं और पीले रंग के पकवान बनाते हैं। वसंत पंचमी का धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्त्व निम्नलिखित बिंदुओं द्वारा दर्शाया जा सकता है —
- सादगी और निर्मलता को दर्शाता है पीला रंग हर रंग की अपनी खासियत है जो हमारे जीवन पर गहरा असर डालती है। हिन्दू धर्म में पीले रंग को शुभ माना गया है। पीला रंग शुद्ध और सात्विक प्रवृत्ति का प्रतीक माना जाता है। यह सादगी और निर्मलता को भी दर्शाता है। पीला रंग भारतीय परंपरा में शुभ का प्रतीक माना गया है।
- पीले रंग को आत्मा से जोड़ने वाला आत्मिक रंग अर्थात आत्मा या परमात्मा से जोड़ने वाला रंग बताया है। पीला रंग सूर्य के प्रकाश का है यानी यह ऊष्मा शक्ति का प्रतीक है। पीला रंग हमें तारतम्यता,संतुलन,पूर्णता और एकाग्रता प्रदान करता है।
- एक अन्य मान्यता के अनुसार यह रंग तनाव को दूर करने में कारगर है। यह उत्साह बढ़ाता है और दिमाग सक्रिय करता है। परिणामस्वरूप दिमाग में उठने वाली तरंगें खुशी का अहसास कराती हैं। यह आत्मविश्वास में भी वृद्धि करता है। हम पीले परिधान पहनते हैं तो सूर्य की किरणें प्रत्यक्ष रूप स दिमाग पर असर डालती हैं।
वसंत पंचमी का पौराणिक महत्त्व:
पौराणिक मान्यता के अनुसार,भगवान ब्रह्मा जी ने समस्त संसार की रचना की। उन्होंने मनुष्य,जीव-जन्तु पेड़-पौधे बनाए लेकिन फिर भी उन्हें अपनी रचना में कमी लगी। इसलिए ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल से जल छिड़का,जिससे चार हाथों वाली एक सुंदर स्त्री प्रकट हुई। उस स्त्री के एक हाथ में वीणा,दूसरे में पुस्तक,तीसरे में माला और चौथा हाथ वर मुद्रा में था। ब्रह्मा जी ने इस सुंदर देवी से वीणा बजाने को कहा। जैसे ही उन्होंने वीणा बजायी ब्रह्मा जी के बनाई हर चीज में मानो सुर आ गया। इसके बाद ब्रह्मा जी ने उन्हें वीणा की देवी सरस्वती का नाम दे दिया। वह दिन बसंत पंचमी का था। यही कारण है कि हर साल बसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती का जन्मदिन मनाया जाने लगा और उनकी पूजा की जाने लगी।
एक मान्यता के अनुसार इस त्योहार की उत्पत्ति आर्य काल में हुई। आर्य लोग कई अन्य लोगों के बीच सरस्वती नदी को पार करते हुए खैबर दर्रे से होकर भारत में आकर बस गए। एक आदिम सभ्यता होने के नाते उनका अधिकांश विकास सरस्वती नदी के किनारे हुआ। इस वजह से सरस्वती नदी को उर्वरता और ज्ञान के साथ जोड़ा जाने लगा। तब से यह दिन मनाया जाने लगा।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन का जुड़ाव एक प्रसिद्ध लोकप्रिय कवि कालिदास के साथ भी जुड़ा हुआ है। छल कपट के माध्यम से एक सुंदर राजकुमारी से शादी करने के बाद राजकुमारी ने उसे अपने घर से बाहर निकाल दिया था क्योंकि उसे पता चला कि वह मूर्ख था। इस घटना के बाद कालिदास आत्महत्या करने के लिए सरस्वती नदी के पास चले गए थे। तब सरस्वती पानी से बाहर निकलीं और उन्हें वहां स्नान करने के लिए कहा। कालिदास ने सरस्वती नदी के पवित्र जल में डुबकी लगाई इसके तुरंत बाद कालिदास को ज्ञान की प्राप्ति हो गई और उन्होंने उसी दिन से कविता लिखने की शुरुआत कर दी। इस प्रकार बसंत पंचमी को शिक्षा और शिक्षा की देवी माँ सरस्वती की वंदना करने के लिए मनाया जाता है।
इस त्योहार का आधुनिक स्वरुप:
आज के समय में यह त्यौहार किसानों द्वारा बसंत के मौसम के आने पर मनाया जाता है। यह दिन बड़े पैमाने पर भारत के उत्तरी भागों में मनाया जाता है। यहां लोग ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं और देवी सरस्वती के नाम पर अनुष्ठान आयोजित करते हैं। रंग पीला त्योहार के साथ जुड़ा हुआ प्रमुख रंग है जिसका मूल सरसों के खेतों को माना जाता है जो इस अवधि के दौरान पंजाब और हरियाणा में देखा जा सकता है। पतंगबाजी भी आमतौर पर इस त्योहार से जुड़ी होती है। बच्चों के साथ-साथ वयस्क भी इस दिन पतंग उड़ाते हैं ताकि आजादी और आनंद मनाया जा सके। इस दिन पीले रंग की मिठाई भी वितरित की जाती है और निर्धन लोगों को किताबें और अन्य साहित्यिक सामग्री दान करते हुए भी देखा जा सकता है।
कुदरत के इस खूबसूरत दृश्य से प्रसन्न होकर पक्षी हमें अपने मीठे संगीत से आनंदित करते हैं। जिससे हमारा मनोरंजन भी होता हैं। कोयल के शानदार गीतों से हमारा दिल और आत्मा भावविभोर हो जाती है। सब कुछ उज्ज्वल और सुंदर दिखता है। यही कारण है कि हम बसंत पंचमी को बड़े उत्साह और उमंग के साथ मनाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के खेतों में पीली सरसों खिलने से खेतों को सुंदर रूप मिलता है। बागीचों में खूबसूरत रंग-बिरंगे फूल दिखाई देते हैं। तितलियाँ बाग़ बगीचों में विचरण करते हुए फूलों से रसपान करती हैं। भँवरे अपनी मस्ती भरी तान छेड़कर वातावरण को मस्ती से भर देते हैं।
त्योहार प्रेम,स्नेह के प्रतीक माने जाते हैं। ये बैर भाव को छोड़कर आपसी भाईचारा बढ़ाते हैं। मगर आजकल कुछ निम्न सोच वाले व्यक्ति रंग में भंग डालने का काम करते हैं। बसंत पंचमी ही क्या अब तो प्रत्येक त्योहार ही बाजार की भेंट चढ़ गया है। अब त्योहार उद्दंडता का प्रतीक बनते जा रहे हैं। मैं ज्ञाता नहीं हूँ लेकिन जो परिवर्तन मैंने देखे हैं कि आस्था ढोंग की भेंट चढ़ गई है। सन् 1955-60 के बाद की तस्वीर जिस तरह से बदली है वह आँखों के सामने चल चित्र पेश करती है। मैनें अपनी दादी और मांँ को देखा जो निरक्षर थी लेकिन दोनों ही बसंत पंचमी के दिन मीठे चावल हल्दी डालकर बनाती थी और हम सभी को हल्दी का टीका लगाती थी। वे कहती थी कि पीला रंग आँखों को प्यारा लगता है, लगे भी क्यों ना ? लहराती सरसों को देख कर किसान प्रसन्न होता है। इंसान हो या कोई भी जीव-जंतु सुंदरता सबको पसन्द है।
अब संभ्रांत महिलाएं इस दिन के लिए (सिर्फ एक दिन के लिए) पूजा करने के लिए पीली साड़ी (परिधान) पहनती हैं। उनके पास डिग्रियां तो हैं लेकिन उनका सरस्वती माँ से दूर का रिश्ता भी नहीं है। मगर हमें आज जरूरत है एक नवीन सोच के भारत की जिसे हम नफरत को भूलकर मिलजुलकर आपसी प्रेम भाव से विकसित कर सकते हैं।
— अशोक कुमार ढोरिया