कविता

आखिरी आदमी की पीड़ा

तरह-तरह के लोक लुभावने वादे
जीत के पहले व्यक्तित्व सादे
जब जीत सुनिश्चित हुई
फिर दिखाते प्रतिबिंब पियादे।
जमीनी स्तर में पाँव नही
बैठने को सुखमय छाँव नही
नाली,सड़के,आवास भूल गए
पशुओं के गोचर भूमि गाँव नही।
नई-नई तरकीब लूटने को
उत्कोच,गबन जनतंत्र कूटने को
दरिद्र दरिद्रता में मर जाए
पर देखते नही जमीं पैर-घुटने को ।
अतिशय रुतबा में विचरण करते
जनहित में प्रकरण भरते
पर विस्मृत कर देते मुख्य-मुद्दे
भर-भर धन संचरण करते
जनता-जनार्दन को समझे कीड़ा
और उठाते नही कोई बीड़ा
नेता का कार्य तो वही है,
जो समझे आखिरी आदमी की पीड़ा।।

— चन्द्रकांत खुंटे ‘क्रांति’

चन्द्रकांत खुंटे 'क्रांति'

जांजगीर-चाम्पा (छत्तीसगढ़)

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