कहानी

कहानी – रिश्तों का फिसलना

वह तीनों टाइम नशे में धूत रहता था। कभी कभी बेहद नशे में उसे देखा जाता। वह चलने की हालत में नहीं होता। अपना सारा सुध बूध खो कर किसी घर के पिछवाड़े या फ़िर किसी पेड़ की छांव में बेसुध पड़ा मिलता। शरीर मुड़ा तुङा होता, आंखें लाल, बाल उलझे, सुखे होंठ और थूक से चिपचिपे गाल-मुंह, जिस पर कभी-कभार मक्खियाँ भिनभिना रही होती। उसे कोई कुछ नहीं कहता। न घर वाले खोज खबर लेते और न बाहर वालों का उससे कोई मतलब होता। देह सूखकर ताड़ की तरह लंबा हो गया था। खाने पर कोई ध्यान ही नहीं रहता उसका। कभी घर आया तो खा लिया नहीं तो बस दे दारू, दे दारू! 

सुबह दारू से मुंह धोता तो दोपहर तक दारू ही चलता रहता। दोपहर के बाद गांजे का जो दौर शुरू होता तो शाम तक रूकने का नाम नहीं लेता! दोस्त न के बराबर थे, एक था बीरबल जो उसके साथ देखा जाता और दूसरा था एक झबरा कुता, जो हमेशा उसके इर्द-गिर्द डोलता रहता। शायद चखना-उखना और मुर्गियों की टंगड़ी उसे बीच-बीच में खाने को मिल जाता था।

बहिरा दारू दुकान उसका मुख्य अड्डा होता। वहीं से उसकी दिन की शुरूआत होती और रात भी वहीं से शुरू होती। जिसका कोई पहर नहीं होता। लोगों को अक्सर वह वहीं मिल जाता। सुबह सुबह बहिरा भी उसका मुंह देखना नहीं चाहता। लेकिन ग्राहक देवता होता है, उसे भगा भी नहीं सकता। पीता है तो पैसे भी पूरा दे देता है। और बहिरा को तो पैसे से मतलब था। पीने वाला आदमी हो या कुता उसे क्या फर्क पड़ता? अब कहोगे बिना नाम उसे रबर की तरह खींचते जा रहे हो।

ऐसा नहीं था कि मां-बाप ने उसका नाम नहीं रखा था। या नाम रखना भूल गया था। बचपन में मां-बाप ने बड़े प्यार से उसका नाम शंकर रखा था। उन्हें क्या पता था कि बड़ा होकर ऐसा निकलेगा। कोई बुरा बनता है तो लोग उसे नहीं उसकी परवरिश को गाली देते है ” किसी बच्चे को अच्छी परवरिश और अच्छी शिक्षा नहीं मिले तो वह बिगड ही जाता है। मतलब कि बिगड़ने की पूरी गारंटी रहती है। ” 

लेकिन शंकर के साथ ऐसा नहीं था। बचपन में जितना लाड-प्यार उसे मिलना चाहिए, मिला। जैसी परवरिश और जिस तरह की शिक्षा उसे मिलनी चाहिए थी, उसका भी पूरा पूरा इंतजाम किया गया! जब तक गांव के स्कूल में पढ़ा, घर में ट्यूशन पढ़ाने डेली शाम को एक मास्टर आया करता था। ताकि पढ़ाई में बेटा पीछे न रहे। ऐसी सोच रखने वाले मां-बाप गांव में विरले में मिलते हैं। जब बड़ा हुआ तो रांची जैसे शहर के एक नामी स्कूल आरटीसी में उसका नामांकन करवा दिया और हॉस्टल में ही रहने की व्यवस्था भी कर दी गई। यहां भी ट्यूशन का इंतजाम कर दिया गया। बस यहीं से शंकर पर से मां-बाप का नियंत्रण खत्म होना शुरू हो गया था। यदपि हर माह उसका बाप गणपत उससे मिलने जाता और घर की बनी ऐरसा-ठोंकनी रोटी बना कर उसकी मां तुलसी देबी बाप के हाथों भेजवा देती थी। ताकि बेटे को कभी घर की कमी महसूस न हों और बाजार की बासी- फुसी चीजें खाने से भी बचे पर जाने क्या था या शायद समय अनुकूल नहीं था। शंकर बाहरी चीजों को खाने पर ज्यादा जोर देने लगा था। घर की बनी शुद्ध रोटियाँ उसे उबाऊ लगती। और बक्से में पड़ी पड़ी रोटियाँ सुख कर से रोटा हो जाती थीं। बाद में शंकर उसे बाहर फेंक देता था। यह बात मां को पता चला तो उसे बड़ा दुःख हुआ और तब उसने घर से कुछ भी भेजना बंद कर दिया ” खाओ बाजार की चीजें जितनी खानी होएक दिन बीमार पडेगो तब समझोगे तुम,! ” तुलसी देवी ने एक दिन झल्ला कर कह दी थी।

शंकर का बाप गणपत एक कंपनी में डोजर आपरेटर था। हर माह घर में अस्सी नब्बे हज़ार लेकर आता था। वो चाहता था इन पैसौं से बेटा उसका पढ़ लिख कर डॉक्टर- इंजीनियर बने, बड़ा आदमी बने तभी उसके पैसे का मान रहेगा, नहीं तो यह पैसा बेकार है उसके लिए! परन्तु बेटे की चाल चलन देख मन उसका कुहूक(घबरा)उठता था। जाने क्या होगा आगे? वो अकेले में सोचता था।

इसी बीच शंकर की माता तुलसी देवी को लकवा मार दी। तत्काल उसे रांची के एक हास्पीटल में भर्ती कराई गई! पूरा शरीर लकवे की चपेट में आ गया था। बेटे शंकर को भी इसकी खबर मिली। पर रांची में रहते हुए भी वह मां को देखने तक नहीं आया। परीक्षा का बहाना बना और पहले से तय दोस्तों के संग पिकनिक मनाने हुंडरू फॉल चला गया। शाम को हॉस्टल लौटा तो नशे में उसके पैर लड़खड़ा रहे थे। हॉस्टल इंचार्ज ने जोर से फटकार लगाई-” पिकनिक मनाने की छुट्टी लोगो और बाहर जो मर्जी करोगे, आगे से ऐसा नहीं होगा। “

” सॉरी सर! आगे से ऐसा नहीं होगा। ” शंकर ने भी यही कहा। बहकने की यह उसकी पहली शुरुआत थी।

 लकवाग्रस्त पत्नी के गम में डूबे गणपत की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उसके घर-परिवार की गाड़ी कैसे चलेगी? घर की देख-रेख, खाने पीने की व्यवस्था कैसे होगी। आज उसे अपने आप पर भी कम गुस्सा नहीं आ रहा था। आज एक बेटी होती तो कम से कम रसोई की चिंता तो नहीं होती उसे। दो बेटों के बाद ही उसने पत्नी का बंध्याकरण करवा दी थी। बड़ा बेटा शंकर और छोटा गुलाबचंद था। जो डीएवीस्कूल मकोली में क्लास छह में पढ़ रहा था। पत्नी कहती रही ” कम से कम एक बेटी तो होने देता। ” गणपत ने तब उसकी एक नहीं सुना था ” बहुएं आएगीं, उसी को बेटी मान लेना। ” गणपत की सोच बड़ी थी। आज गणपत का दिमाग कुछ काम नहीं कर रहा था। बेड़ पर लेटी पत्नी को बार-बार देखता और कुछ सोच का उपक्रम करने सा लगता। तभी उसे छोट साढू भाई की बात याद आई ” साढू जी, आपकी कोई बेटी नहीं है तो क्या हुआ, मेरी तीन में से एक आप रख लीजिए बेटी की कमी भी पूरी हो जायेगी और बेटी की पढ़ाई-लिखाई भी यहां ठीक से हो पायेगी!”

“क्यों नहीं, जैसी आपकी बेटी वैसी हमारी बेटी! “

 अचानक गञपत ने छोटा साढ़ू को फोन लगा दिया ” साढ़ू भाई, नमस्कार आप लोगों को तो मालूम हो ही चुका है कि शंकर की मां को लकवा मार दी हैंऔर इस वक्त वह हॉस्पिटल की बेड़ में पड़ी हुई है। “

“हां, साढ़ू जी, जान कर बहुत दुख हुआ! अभी वो कैसी है? डॉक्टर का क्या कहना है?”

“कुछ सुधार तो है, पर डॉक्टर का कहना है लंबा इलाज चलेगा, कई साल भी लग सकता है। हो सकता कि वह पूरी तरह कभी ठीक न हो पाएयह भी डॉक्टर कहता है” गणपत एक पल को रूका था। फिर बोला “साढू भाई, याद है, आपने एक बार मुझसे कहा था कि आपके दो बेटे और मेरी तीन बेटियाँ हैं, मेरी एक बेटी आप अपने पास रख लीजिए, बेटी की कमी भी पूरी हो जायेगी, आज मैं सरिता को मांगता हूँ! आप मुझे सरिता को दे दीजिए, उसकी पढ़ाई-लिखाई और शादी-ब्याह सारी जिम्मवारी मेरी। इस समय एक बेटी कि मुझे सख्त जरूरत है साढ़ू भाई!” 

“ठीक है, मैं सरिता की मां से बात करूंगा! ” 

दो दिन बाद उसके साढ़ू भाई का फोन आया-” माफ करना साढ़ू जी, सरिता की मां इसके लिए तैयार नहीं है!” 

“ओह! कोई बात नहीं है साढ़ू भाई। सब समय का फेर है! समस्या मेरी है तो समाधान भी मूझे ही ढूंढ़ना होगा। ” 

और उसने फोन काट दिया था।

पत्नी तुलसी देवी की लकवा की तरह गणपत की सोच को भी उस वक्त लकवा मार दिया था जब शंकर के स्कूल प्रबंधन की ओर से एक दिन सुबह सुबह फोन पर कहा गया ” आपके बेटे शंकर को स्कूल और हॉस्टल से निलंबित कर दिया गया है, उसे स्कूल से निकाल दिया गया है। जितनी जल्दी हो आकर ले जाइये। ” 

सुनकर गणपत को लगा उसके संसार का चमन उजड्ड गया और उसके लहलहाते जीवन की बगिया में आसमानी बिजली गिर पड़ी हो। अस्पताल के कॉरीडोर से वह हड़बड़ी में उतरा और सड़क पर पैदल ही स्कूल की ओर दौड़ पड़ा था। अपने समय में वह फुटबाल का अच्छा खिलाडी हुआ करता था। अभी जीवन उसके साथ फुटबाल खेल रहा था! स्कूल पहुँच प्रबंधन के आगे वो सीधे साष्टांग झुक गया। बोला -” बेटे ने जो भी गलती की हो, आखरी बार माफ कर दीजिए माय-बाप! दोबारा ऐसा नहीं होगा। ” 

” आपकी सज्जनता को देखते हुए इसे माफ किया जाता हैध्यान रहे, फिर ऐसा न हो। ” स्कूल प्रबंधन की ओर से कहा गया! गणपत ने हाथ जोड लिए।

स्कूल गलियारे में ही गणपत को बेटे का गुनाह का पता चल गया। स्कूल में होली अवकाश की सूचना निकल चुकी थी। दो दिन बाद स्कूल का बंद होना था। उसके पहले स्कूल हॉस्टल में एक काण्ड हो गया, जैसा किसी ने सोचा भी नहीं होगा, जिसमें गुलशन का बेटा शंकर भी शामिल था। लड़के की भेष में बहू बाजार में सड़क किनारे बैठ हंड़िया बेचने वाली दो लड़कियों को कुछ लड़कों ने चौकीदार की मिलीभगत से हॉस्टल के अंदर ले आये। रात भर महफ़िल जमी, दारू मुर्गा का दौर चला, दो जवान जिस्मों को दारू में डूबो कर उनके साथ खूब बॉलिंग बैटिंग की गई। अभी महफ़िल पूरे उफान पर ही थी कि तभी हॉस्टल पर प्रबंधन की रेड पड़ी! हॉस्टल इंचार्ज समेत पांच लड़के उस कबूतरबाजी में पकड़े गए। हॉस्टल इंचार्ज और चौकीदार को तो प्रबंधन ने तत्काल काम से हटा दिया और छात्रों के अभिभावकों को फोन कर हाज़िर होने को कहा गया!

गणपत कपार पर हाथ रख वहीं जमीन पर बैठ रोने लगा। बेटे को लेकर उसने जो सपना देखा था। सब खाक होता दिख रहा था। फिर भी उसने बेटे शंकर से इतना जरूर कहा ” अगले साल तुमको मैट्रिक की परीक्षा लिखनी है, बिढ़या से तैयारी करो। ” और वह हॉस्पिटल लौट आया था।

तीन माह बाद तुलसी देवी को हॉस्पिटल की बेड़ से घर के विस्तर पर सिफ्ट कर दिया गया ” दवा लंबी चलेगी, आहिस्ता आहिस्ता चलने फिरने लगेगी। इसकी देख रेखमें ढील न हों, टाइम टू टाइमदवा और मसाज भी जरूरी है। ” डॉक्टरों की टीम ने कहा था।

तीन माह से गणपत ठीक से न सो पाया था न रेगुलर काम कर पा रहा था। हॉस्पिटल में तो नर्स के भरोसे छोड काम पर चला आता था। घर में तुलसी देवी की देख-भल के लिए कोई तो चाहिए? 

इस प्रश्न ने गञपत को परेशान कर दिया। बड़ी भाग- दौड़ कर प्राइवेट हॉस्पिटल के एक नर्स को उसको मुंहमांगी पैसे देने की बात कर घर ले आया।

तुलसी देवी को अपनी सेवा देते हुए अभी नर्स गीता का दो ही माह पूरा हुआ था कि एक दिन सुबह सुबह गणपत को यह कह कर चौंका दी ” अब मैं यहां काम नहीं कर सकूंगी, मुझे जाना होगा। “

” क्यों? किसी ने कुछ कहा? या हमसे कोई भूल हुई?”

” नहीं, पर यहां की औरतें अच्छी नहीं है। ” 

” मैं समझ गया, बगल वाली करेला बहू ने कोई गंदगी फैलाई होगी, ठीक है, तुम जाना चाहती हो, जाओ, मैं रोकूंगा नहीं, कब जाना है, बता देना, अपना एक परिचित टेम्पो वाला है, फोन कर देना, भेज दूंगा!” गणपत जैसे सांस लेने को रूका था फिर शुरू हो गया, बहुत दिनों से उसका बंद मुंह आज जैसे खुल गया था ” आपको हॉस्पिटल में सिस्टर गीता कहते होंगे लोग, और मैं आपको अपनी छोटी बहन समझता हूं। ” बोलते बोलते गुलशन का गला भर आया और आँखें छलक पड़ी। इसी के साथ वह घर से काम के लिए निकल पड़ा था। गीता उसे जाते हुए फकत देखती रह गई थी।

शंकर ने बेमन से मैट्रिक बोर्ड परीक्षा लिखी और तीन माह बाद उसका परिणाम भी आ गया। वह सेकेंड डिवीजन से पास हुआ था। रिजल्ट कार्ड लाकर बाप के हाथ रखते हुए कहा था ” इसके आगे मै नहीं पढ़ूंगा। पढ़ाई में मेरा मन नहीं लगता। यह रिजल्ट आप रख लीजिए। ” इसी के साथ वह घर से निकल पड़ा था। गणपत आवाक बेटे को जाते हुए खड़ा देखता रहा। सप्ताह दिन तक जब वह नहीं लौटा। तब किसी ने कहा वह कलकता चला गया है। गणपत के साथ ही यह सब कुछ क्यों हो रहा था। वह हैरान था! परेशानी की चक्रव्यू ने चारों तरफ से उसे घेर रखा था और उस पर वह रो भी नहीं सकता था, मर्द जो ठहरा! 

 दोपहर को गणपत काम से घर लौटा। गीता तुलसी देवी को खाना साथ खिला रही थी। साबून तौलिया लिए वह सीधे बाथरुम चला गया। नहाकर आया तो गीता ने खाना लगा दी।

 “इस घर में बहू आ जायेगी तभी अब जाऊँगी। ” 

“बहु! आश्चर्य से गणपत ने गीता पर नजर डाली और खाना खाने लगा। उसकी मरी हुई भूख जाग उठी थी।

हाथ धोकर उठा तो मन ही मन फिर बुदबुदाया ” बहु!” उसे भी लगा शंकर को सुधारने का अब एक ही रास्ता है उसकी शादी! बहूएं अच्छे अच्छे नशाबजों की सवारी करने में माहिर होती है। ऐसा गणपत का मानना था।

 शंकर के लिए शादी जरूरी थी या नही पर उस घर को एक बहू की सख्त जरूरत थी। यही सोच गणपत ने संगी साथियों के बीच बात चलाई और एक दिन नावाडीह की पढ़ी लिखी, सुशील और संस्कारी किसान बेटी ललीता के साथ बेटे की शादी तय कर दी। ललीता बहुत सुंदर नहीं थी। लेकिन बदसूरत भी नहीं थी। वो किसी के शरीर में उबाल ला सकती है, ऐसी जरूर थी। एक दिन शंकर से कहा-” हमने तुम्हारे लिए एक लड़की पसंद की है, किसी दिन जाकर देख लो, ताकि शादी की दिन तिथि, पक्की हो। “

“आपकी पसंद ही मेरी पसंद है!” शंकर ने कहा था।

शंकर की बारात ऐसे निकली जैसे शिव की बारात हो। शंकर के साथी बाराती नशे में ऐसे झूम रहे थे जैसे शिव की बारात में कुकूर भालू! बूढ़ बुजुर्गों के पांव भी जमीन को धकिया रहे थे। वो नटुआ नाच रहे थे। वे युवाओं से खुद को कमतर समझने को तैयार नहीं थे। वो अपनी पुरानी कला संस्कृति की नाच से युवाओं पर भारी पड जाना चाहते थे।

बारात जब दुल्हन की द्वार पर पहुंची तो नाचने वाले बारातियों में शंकर सबसे आगे नाच रहा था, गा रहा था और झूम रहा था ” जमाने को दिखाना है! जमाने को दिखाना है” देखने वाले आश्चर्यचकित ” दुल्हा तो शिव नृत्य कर रहा है!”

वहीं घराती वाले हैरान ” जाने ललीता को कौन सा लीला दिखाए यह दुल्हा!” लोगों के मुंह से निकल रहा था। शादी का मुहूर्त निकला जा रहा था और शंकर बाराती साथियों के संग डीजे धुन पर अब भी नाच रहा था। वो भूल चुका था कि वह बाराती नहीं दुल्हा भी है और उसे शादी भी करनी है। तभी वहां होने वाले उसके दो साले आये और चूड़ा की बोरी उठाने जैसा शंकर को उठाया और कपास की बोरी की माफिक सीधे विवाह मंडप में ले जाकर धर दिये। तब भी शंकर का नशा कम नहीं था। तब भी वह डोल रहा था। पंडित बैठा विवाह श्लोक पढ़ रहा था पर शंकर अपनी ही दुनिया में जैसे मग्न था। वो न पंडित की किसी बात को सुन रहा था और न उसकी तरफ उसका ध्यान था। उसे देख लगता नहीं कि वह शादी करने आया है। हाव-भाव से तो और भी नहीं लगता।

 इसके पहले शंकर के घर में आम बिहा हुआ था। उसकी मां तुलसी देवी का आम पेड़ तक जाना कष्टप्रद था। उसकी इच्छानुसार घर में ही आम बिहा की व्यवस्था की गई थी। बचपन के बाद शादी के दिन ही किसी जवान बेटे को मां की गोदी ( जांघ) पर बैठने सौभाग्य प्राप्त होता है। यह सौभाग्य शंकर को भी मिला था। मां ने बेटे का मुंह चुमती हुई बोली थी ” जाओ बेटे, हमारे लिए एक सुंदर बहू लेकर आना! ” नौकरानी नहीं, बहु कहा था उसने।

 परन्तु शंकर यहां आकर मां का कहा भूल गया, उसे यह भी याद नहीं रहा कि मां के लिए उसे बहु लेकर जाना है। दुल्हन विवाह मंडप में लायी गई। तब भी शंकर होश में नहीं था। दुल्हन बगल में बैठी। पर उसने उसकी ओर देखा तक नहीं। जब सिंदुरादान की बेला आई सभी उठ खड़े हुए और जब उसे उठने को बोला गया तो बड़ी मुश्किल से वह उठ खड़ा हुआ था। तभी बाप गणपत आगे बढ़ आया और बेटे के हाथ से दुल्हन की मांग भराई गई!

बेटी का बाप करीब आकर गणपत से कहा ” समधी जी, मैं आपके भरोसे अपनी बेटी उस घर में ब्याह दे रहा हूँ, देखना कोई तकलीफ न हों!”

” आप निश्चित रहें, आपकी बेटी हमारे घर में राज करेगी राज!”

दुल्हन के बाप के दिल को ढाढस मिला। दोनों एक दूसरे के गले लगे। खुशी से विवाह मंडप मुस्कुरा उठा।

 घर में बहु आ गई। गणपत ने नर्स गीता को ढेर सारे उपहार देकर बहन की तरह विदाई करते हुए कहा था ” बहुत याद आओगी, आते ही रहना। “

” इस घर को मैं कभी भूला नहीं पाऊंगी। ” गीता ने कहा था।

 शादी होकर आए ललीता का इस घर में साल भर हो चुका था। परन्तु और बहुओं की तरह उसके जीवन में अभी तक सुहाग रात नही आई थी। दो दिलों में बहार का आना अभी बाकी था। जैसे जैसे समय बीतता गया। शादी उसके जीवन का एक पहेली बन गया। देखने के लिए तो पूरा घर और सोचने के लिए खुला आसमान था। काम के नाम पर रात भर तारें गिनना और दिन भर सास की सेवा में गुजार देना होता! हर दिन उसका एक नए अनुभव के साथ गुजर रहा था। पति का प्यार अभी तक उसके लिए किसी स्वप्न की तरह था और आगे का पता नहीं। कुलटा बनना उसके संस्कार में नहीं था। ऐसा उसे सोचना भी मना था। ” घर के बाहर जिस औरत की साडी एक बार खुल जाती है, बाद में समेटने का भी मौका नहीं मिलता। ” विदा करते हुए बेटी के कान में मां ने कहा था।

 साल भर में ही ललीता ने रसोई से लेकर रिश्तों तक सूंघ ली थी। सास तुलसी देवी का लकवा मारे दो साल से ऊपर हो चला था। वह कुर्सी पर बैठकर खा लेती थी और लाठी के सहारे जाकर लेटरीन हो लेती थी। उसके अलावे उसके जीवन में करने को कुछ बचा नहीं था। सास-ससुर के अंतरंग संबधों को भी जैसे लकवा मार दिया था। इस अभाव को उसका ससुर कभी सोनागाछी तो कभी लछीपुर जाकर पूरा कर आता था। शुरू में ललीता को इस पर विश्वास ही नहीं हुआ। लेकिन पडोस की करेला काकी ने जब एक दिन जोर देकर कहा ” यह झूठ नहीं है, सारा गांव जानता हैं। ” 

 फिर भी ललीता चुप रही। उसकी बुद्धि विवेक को भी जैसे लकवा मार दिया था। चुप- चाप अब उसने रिश्तों की जमीन को टटोलनी शुरू कर दी थी।

 शंकर में कोई बदलाव नहीं हुआ था। जैसा पहले था, वैसा ही आज भी था। आज भी उसके जीवन में नून तेल लकड़ी का कोई मतलब नहीं था। पत्नी को वह ऊबाऊ और बेकार की चीज समझने लगा था। पत्नी को लेकर उसके अंदर एक निगेटिव किरदार विस्तार लेने लगा था। उसे लगता उसके जीवन में पत्नी कि न जरूरत थी न है। उसके उलट जब वह शाम को घर आता। उसकी पत्नी ललीता खाना लगा कर बड़े प्यार से उसके सामने रख देती। शंकर डेढ दो रोटी खाता और उठ जाता। इस बीच ललीता बडी हसरत और ललायत नजरों से पति की ओर देखती रहती। पति कब उसे प्यार के दो शब्द बोल दे और वह निहाल हो जाए। ललीता सांवली थी। परन्तु रूप लावण्य में बहुत लचीली थी। कमर तक लहराते उसके लंबे लंबे काले बाल किसी के मन भटकाने के लिए काफी था। उसका गदराया शरीर पानी से लबालब भरे तालाब की तरह था। लेकिन शंकर था कि वो उसकी तरफ भालता तक नहीं। ऐसे में शंकर जाने लगता तो ललीता उसका रास्ता रोककर खडी हो जाती। कहती -” कहां चले, अब कहीं नहीं जाना है, घर में रहिए। “

” देखो, तुम मुझे रोका टोका मत करो, खाओ और चुपचाप सो जाओ! तुम मुझसे ऐसी कोई उम्मीद न करना जो मैं दे न सकूं। नाहक तुमको तकलीफ होगी। “

और फिर वह घर से निकल जाता तो लौटने में कभी दस ग्यारह बज जाता तो कभी आधी रात निकल जाती थी। ललीता छाती पर हाथ रख कर सो जाती'” जाने उसके किस्मत में क्या लिखा है?”

आँसू उसका तकिया भिंगोता रहता। कैसा होता है पहली चुंबन और कैसा होता है स्तनों का पहला छुअन! मसलन! ललीता को इससे भी वंचित कर रखा था निर्मोही शंकर नें। ललीता की सारी इच्छाएँ- अभिलाषाएं अभी तक अधुरी थीं और वह विवश और लाचार थी।

 काम से रेस्ट के दिन ही गणपत बाहर जाता था। उस दिन भी वह बाहर निकल रहा था कि बहु ललीता ने टोक दी। कहा ” हर सप्ताह जिस जगह आप जाते है, नहीं जाना चाहिए। ” 

” बहु इस तरह तुम्हारा टोकने और कहने का क्या मतलब है” गणपत ठिठक कर खड़ा हो गया था।

” मैं सब जान चुकी हूँ! सास का लकवा मारना और हर सप्ताह आपका बाहर जाना, यह संयोग नही है, इत्तेफ़ाक भी नहीं है। उसे जरूरत का नाम दिया जा सकता है। पर जरा सोचिए, जो बात आज सारा गांव जान रहा है, कल वही बात छोटका बाबू गुलाबचंद को मालूम होगा तब उस पर क्या गुजरेगी, इस पर कभी सोचा आपने?”

” ऐसा कुछ नहीं है जैसा तुम समझ रही है। ” 

” आपको नहीं मालूम गांव में कैसी चर्चा है। बोलते हैं- पैसे ने बाप- बेटे की चाल चलन बिगाड दिया है। बेटा नशाबाज है और बाप रण्डीबाज!”

” बहु!” गणपत चीख उठा था ” कौन है जो इस तरह बोलता है? किसने तुम्हें यह बात कही? हमें बताओ। ” 

” इससे क्या होगा? गूह गिंजने से गुलाब की खुशबू नहीं आयेगी! गंध ही फैलेगी। “

साल भर में ऐसा पहली बार हुआ जब रेस्ट के दिन गणपत कहीं बाहर नहीं गया। बहु की बातों ने उसे इस कदर झकझोर डाला कि वह सोच में पड गया। वापस कमरे में पहुंचा और कपड़े बदल कर सो गया। परन्तु बहु की बातों ने यहां भी उसका पीछा नहीं छोड़ा ” बेटा नशाबाज और बाप रणड़ीबाज। ” 

लेटे लेटे उसे झपकी आई और वह सो गया। दोपहर को उसे जोर से प्यास लगी। उसने बहु को आवाज दी। वह पानी लेकर आई। गटागट उसने पानी पी लिया। बहु जाने लगी तो उसने कहा ” तुम्हारा सब कहा सही है, मैं जो कर रहा था गलत है, आगे से ऐसा नहीं होगा!” 

कहने का ललीता को सूत्र मिल गया ” मैं यह मानती हूँ, आप अभी भरपूर जवान है, बूढ़े नहीं हुए है, आपका शरीर जो मांगता है, उसे मिलना चाहिए। लेकिन आप जिस जगह जा रहे है, वो जगह सही नहीं है। ” 

” तुम ठीक कह रही हो बहु। “

” आप बाहर की दौड़ लगाना छोड़िए और घर में रहिए, आपको किसी चीज की कमी नहीं होगी। ” यह कहते हुए ललीता अपने कमरे में चली गई! गणपत पहली बार बहू को बहुत गौर से देख रहा था। और उसकी कही बातों का अर्थ निकालने लगा था।

 उस दिन के बाद गणपत ने बाहर जाना छोड दिया। रेस्ट के दिन वो या तो घर में रहता या फिर किसी रिश्तेदार के यहां चला जाता। इस परिवर्तन से खुद तो वो खुश था ही भूलते रिश्तों को भी टोनिक मिल गया था।

उस दिन भी गणपत घर में ही था। दोपहर का समय था। पत्नी के कमरे में बैठा उसकी देह सहला रहा था। मुद्दतों बाद तुलसी देवी पति का सान्निध्य पाकर बेहद खुश थी।

कमरा शांत था। किसी का उधर आने का भी नहीं था। शंकर मां के कमरे में कभी आता नहीं। मां को कब उसने नजदीक से देखा है उसे याद नहीं और ललीता अपने कमरे में लेटी ” सरिता ” पढ़ रही थी। पत्रिका पढ़ने की उसकी यह आदत नयी नयी थी। उस वक्त तुलसी देवी का हाथ पति की जंघा पर था। तभी उसे आभास हुआ और वह कांप उठी। गणपत ने पहले उसमें अपनी दो अंगुलीडालीफिर। “

” नहीं, मैं मर जाऊंगी। “

” कुछ नहीं होगाथोड़ा सहयोग करो न!”

उसी पल खाना लेकर ललीता कमरे में दाखिल हुई! अंदर का दृश्य देख उसने मूडी गाड ली और बाहर जाने लगी। तभी उसे ससुर की आवाज सुनाई पड़ी ” रूको बहू, सास को खाना खिलाओ, मैं जा रहा हूँ।! “

 रात के दस बज चुके थे। ललीता ने सास को खाना और दवा खिला कर सुला दी थी। ससुर को खाने पे बुलाने गई तो कमरे के बाहर उसे बैचेन सा टहलते पाया। बोली ” खाना खा लेते, ठंड़ी हो जायेगी। ” 

” खाने की इच्छा नहीं कर रहा है बहु, तुम जाओ और खाकर सो जाओ। “

” आपको क्या खाने की इच्छा कर रहा है, बोलिए, बना दूंगी। “

” कुछ भी नहीं, मेरा मन ठीक नहीं है!” कह अपने कमरे में जाने लगा। तभी ललीता की आवाज सुनाई दी ” आपका मन अब मैं ही ठीक कर सकती हूँ। मैने एक दिन आपसे कहा था कि जब घर में ही खाने के लिए पके अनार हो तो बाहर के सड़े सेव खाने की क्या जरूरत है। ताजे और मीठे फल खाने से सेहत भी अच्छी रहती है!” कह ललीता अपने कमरे की तरफ मूड गई!

 इधर कुछ दिनों से कुछ अलग ही तरह की बातों से गणपत परेशान था। उसे पता चल चुका था। बेटा और बहू के बीच शारीरिक संबंध किसी कारण जुड नहीं पा रहा था। इससे बहू का बिगडने का आसार बढ़ रहा था। जवान औरत‌ को पति न मिले तो उसका पतित होने में ज्यादा देर नहीं लगती। बल्कि बिगडने का सौ प्रतिशत चांस बढ़ जाता है। जवानी उफनती जोरिया- नाले की तरह होती है। कब किस आर- मेड़ को तोड़, बहने लगे कह पाना मुश्किल। उसी तरह जवान औरत के पांव कब किधर बहक जाए, कब हदें पार कर जाए, अंदाजा लगाना कठिन। जवानी का पांव किसी भी जूते में समा सकता है! फिर संबंध- अवैध संबंध में बदलने में देर नहीं। खानदान के माथे पर दाग़- धब्बे! चिपका दिया जाएगा। गणपत को ललीता की बातों से बहकने के स्वर साफ सुनाई देने लगे थे। तभी से गणपत गंभीर सोंच में दो चार हो रहा था“ताजे और मीठे फल खाने चाहिए। सेहत बनी रहती है!“” ललीता की कही बातें गणपत के कानों में बार बार गूंजने लगी थी।!

 उसका गला सुखता सा महसूस हुआ! क्या करे, क्या न करे, ” टू वी और नॉट टू वी ” में देर तक वह उलझा रहा। नहींनहीं, ऐसा ठीक नहीं होगा, दुनिया क्या कहेगी? रिश्तों का क्या होगा समाज जानेगाउसका कौन जवाब देगा? देखो, घर की बात है और दोनों को एक दूसरे की जरूरत भी हैतर्क उसके दिमाग में उथल पुथल मचाते रहा! आगे बढ़ने के लिए जैसे कोई उसे उकसा रहा था, पीछे से धकिया रहा था आगे बढ़ोआगे बढ़ोदुनिया जाए भांड़ में!

अंदर कमरे में गणपत ने कदम रखा। सामने, अंगड़ाई लेती हुई एक जवां जिस्म बाहें फैलाई खड़ी थी ” कब से मुझे इस घड़ी का इंतजार था, कोई तो मुझे अपनी बांहों में भर ले, तन की धधकती ज्वाला को बुझा दे!” ललीता बोली।

गणपत अब भी ठिठका खड़ा, द्वंद् में घिरा हुआ था“बहू इस तरह हमारा मिलना क्या सही होगा? मैं बाहर जाता था अपनी जरूरतों को पूरा करने। तुमने मना किया, मैंने जाना बंद कर दिया। इसका मतलब यह नहीं है कि घर में मै अपनी ही बहू के साथयह सब नहीं, यह गलत होगा!” गणपत वापस मुडा।

“मै भी एक औरत हूँ। एक ऐसी औरत जिसे शादी के बाद उसके मरद ने छुआ तक नहीं! आप मुझे इस हालत में छोड़ कर जाना चाहते है, जाइए मैं नहीं रोकूंगी। लेकिन कल सुबह तक शायद जिंदा नहीं रहूंगी। आपने मेरा शरीर देखा, अब कोई दूसरा मरद इसे देखे, यह मुझे मंजूर नहीं।“

“यह बियर की बोतल यहाँ कैसे?“ गणपत चौंका था।

“मैं मंगाती हूं!“

“तुम कब से ले रही है?“

“जब से रातों को नींद नहीं आ रही है!“

तभी शंकर ने घर में कदम रखा था। पहले वह रसोई में गया। खाना ढांप कर रखा हुआ था। उसने दो रोटी खाई और अपने कमरे की ओर बढ़ा। दरवाजा अंदर से बंद था। धक्का दी पर खुला नहीं, वो बाहर जाने को मुड़ा! तभी अंदर से आती आवाजें कानों में पड़ी“यह जीवन जीने के लिए मिला है। घूट घूट कर मरने के लिए नहीं, आपके बेटे को मेरी जरूरत नहीं है, उसके लिए दारू ही दुनिया है, परन्तु मुझे तो मरद का सुख चाहिए, चाहे वो पति दे या उनके पिताकोई फर्क नहीं पड़ता!“

” यह गाँव है बहू, शहर नहीं, लोग जानेंगे सुनेंगे तो जीना हराम कर देंगे हम दोनों का।“

“अब गाँव भी, गाँव नहीं रहा, जो शहरों में होता है, वो गाँव में भी होने लगा है! सुगिया की माँ तो अपने भैंसूर के साथ सोती है? उसे तो कोई कुछ नहीं कहता? और करेला काकी, उसका तो अपना मरद है, फिर वह देवर के साथ क्यों सोती है?“

“सब औरतें ऐसी नहीं होती। चरित्र से संस्कार का पता चलता है। हमारा इस तरह मिलना, मुझे कहीं से सही नहीं लगता है!“

“सही और गलत क्या है मैं जानना नहीं चाहती। बस इतना जानती हूँ कि आप मुझे शादी कर लाये हैं, आपका बेटा नहीं, उसने आज तक मुझे छुआ तक नहीं। फिर हम दोनों को साथ रहने में कैसी उलझन!“

“तुम शंकर को नहीं जानती! उसे हमारे संबंधों के बारे मालूम होगा, तब जाने वह क्या करेगा?“

“उसके बारे आप सोचना छोड़ दीजिये, उसमें मर्दानगी नहीं है, मर्द होता तो अभी तक वो मुझे मसल कर रख देता!“ललीता लपक कर गणपत से लिपट गयी और उसे अपनी बाहों में जकड़ ली –“आज से आप ही मेरे लिए सब कुछ है!“

 बाहर खड़े शंकर ने भर भर कान सुनी अंदर की सारी बातें। उसे लगा, अब इस घर को उसकी जरूरत नहीं है। अब उसके जीवन का कोई मोल नहीं रहा। इससे पहले कि कोई उसे वहां देख ले, दबे पांव वह घर से जो निकला, लौटकर फिर कभी उस घर में नहीं आया। कहां गया, किधर गया, किसी को कुछ पता नहीं।

— श्यामल बिहारी महतो

*श्यामल बिहारी महतो

जन्म: पन्द्रह फरवरी उन्नीस सौ उन्हतर मुंगो ग्राम में बोकारो जिला झारखंड में शिक्षा:स्नातक प्रकाशन: बहेलियों के बीच कहानी संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित तथा अन्य दो कहानी संग्रह बिजनेस और लतखोर प्रकाशित और कोयला का फूल उपन्यास प्रकाशित पांचवीं प्रेस में संप्रति: तारमी कोलियरी सीसीएल में कार्मिक विभाग में वरीय लिपिक स्पेशल ग्रेड पद पर कार्यरत और मजदूर यूनियन में सक्रिय

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