कंक्रीट का जंगल
कट रहा है वो सुंदर सा
मनमोहक नजारों वाला जंगल,
मरेंगे समस्त जीव-जंतु,आदिवासी
और होगा धनकुबेरों का मंगल,
पनपते जाएंगे बहुत ही घना
कंक्रीटों का भयंकर जंगल,
शुरू होगा इंसानों और जीवों में दंगल,
जहां तरसेंगे लोग शुद्ध हवा को,
जब पड़ेंगे बार बार बीमार
तब खाएंगे रासायनिक दवा को,
मिट जायेगा मोहमाया व नैतिकता
दिलों में ही सिमटाकर रखेंगे लोग दया को,
होंगे लड़ाई झगड़े,भाई भाई में रार
आधुनिकता की आड़ में सब भूलेंगे शर्म हया को,
खो जाएंगे जंगल आने जाने वालों की
नित्य चलने से बनी पगडंडियां,
बन जाएंगे नैनों में चमक चुभाता सड़क,
बाघ,भालू,हाथी से भी ज्यादा
डरावने क्षण पैदा करने वाले लोग कड़क,
सीधे-साधे,भोले आदिवासी
जो पाते हैं मुफ्त विभिन्न लकड़ी व फल,
वे निकलेंगे खरीदने उन्हीं सब चीजों को
भव्य दुकानों में लुट जाने आज नहीं तो कल,
वनों के रक्षक आदिवासियों के
बच्चे पूछेंगे जब अजीब सवाल
ये जंगली जानवर होते हैं क्या,
तब बताएंगे लोग देख देख कर
मानवों से बने हिंसक जानवर नया,
मदांध हो चुके आज के लोगों से
पूछेंगे उनके भी बच्चे कि कहां था हसदेव,
बचाने हम सबको प्रदूषण से
क्यों नहीं किये तब पर्यावरण सेव।
— राजेन्द्र लाहिरी