आ जाओ मेरी जगह
आप लगाओं जितना भी तोहमत
है मुझे स्वीकार
लेकिन मैं कहती हूँ
क्या तुम उसे करोगे अंगीकार?
एक दिवस के लिए,आ जाओ मेरी जगह
जान लो समुद्र की गहराई और सतह
किनारे रहकर कुछ न बोलो
एकपक्षीय तराजू में न तौलों
जब एक सवेरे उठकर करोगे गृहस्थी के काम
चाय झाड़ू भोजन,बच्चों से न मिले आराम
तब समझ में आएगा
चंद पल में मन झल्ला जाएगा
एक कर्म का अथ नही,दूजा हो जाते इतिश्री
इठलाना दुर्भाग्य पर,तब हल्ला हो जाएगा
उठने से लेकर सोने तक,
कपड़ा,बासन,शिशुओ के गंदगी धोने तक
अंतस से टूट जाओगे,चारदिवारी में
कभी इलाज नही मिलेगा,इस बीमारी के
पिंजरे में कैद पक्षी के,दर्द तब समझ पाओगे
फिर नही मुझ पर तोहमत लगाओगे।।
— चन्द्रकांत खुंटे ‘क्रांति’