बंद हूं मैं
बंद हूं मैं, कैद हूं मैं
घूट रही हूं मैं, घट रही हूं मैं
पराधीन हूं, ना स्वाधीन मैं
बेमोल सी हूं अर्थहीन मैं
मेरे विचारों की हथकड़ियां है
लगी है मेरे pankho में
उड़ने से रोकती है मुझे
समाज की बेड़ियां है
मेरे कदमों को जकड़ती है
चलने पर टोकती है मुझे
डर है, कहर है।
हर पहर है।।।
घर है, शहर में है।।।।
दर्द है,, द्वंद है।।
रोष है द्वेष है
भेद है, खेद है।।।
अब आज़ाद होना है
उड़ान जैसे बाज होना है
बेड़ियां, रूढ़ियां,
हथकड़ियां
सब तोड़नी है।।
पोशाक पुरानी
अब छोड़नी है
विचारों को रिहा करना है
मुक्त अब उन्मुक्त होना है
मुझे आजाद होना है
मुझे आजाद रहना है
— निशा ‘अविरल’
आजादी
संभव नहीं,
जब तक
किसी का हाथ चाहिए,
किसी का साथ चाहिए,
कानून की सुरक्षा चाहिए
तो कानून भी स्वीकारना होगा,
परिवार चाहिए
बंधनों को मानना होगा
रोटी, कपड़ा और मकान
भी बंधन है
बंधन है यह जीवन भी
तभी तो
युगों युगों से
रही है चाह मुक्ति की,
चार पुरुषार्थ माने गए
धर्म, अर्थ काम और मोक्ष
पर मिले किसी को
जिज्ञासा अभी है
बंधन भी है
नहीं चाहिए मुझे
आजादी
किंतु
जिंदा रहना जरूरी है
भले ही जीना
मजबूरी है।