धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

पहाड़ों में लगते हैं कुँवारों के मेले, मिलता है जीवनसाथी का वरदान

राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात के आदिवासियों की साँस्कृतिक एवं सामाजिक परम्पराओं का मनोहारी दिग्दर्शन कराने वाले राजस्थान के दक्षिणांचल वाग्वर प्रदेश (बाँसवाड़ा, डूँगरपुर एवं आस-पास के इलाके) में हर दिन नए पर्व और आशाओं का पैगाम लेकर उगता है।

यहाँ साल भर कहीं न कहीं पर्व-उत्सवों और मेलों की धूम लोक जीवन के उत्सवी लीला विलास को प्रकट करती है। इसमें अंचल के लोग पूरी श्रद्धा और मस्ती के साथ हिस्सा लेते हैं और जीवन के आनन्द को बहुगुणित कर मौज-मस्ती के साथ जीते हैं।

हर परंपरा है अनूठी

यों तो भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं में उत्सवी माहौल की प्राचीन रीतियां और लोक परम्पराएं देश के विभिन्न हिस्सों में बदले हुए रूपाकारों के साथ देखी जा सकती हैं लेकिन राजस्थान के इस दक्षिणांचल में कई ऐसी मनोहारी परम्पराएँ लोक जीवन का अहम् हिस्सा रही हैं जिनका दिग्दर्शन इस अंचल में ही परम्परा से पूरे यौवन के साथ होता है। यहाँ की कई विलक्षण परम्पराएँ और लोक रंगों की जीवन्त झलक दुनिया में कहीं और देखने को नहीं मिलती।

तीनों राज्यों की लोक सांस्कृतिक त्रिवेणी बहा रहे जनजाति बहुल वागड़ अंचल में होली मौज-मस्ती का विराट फलकों वाला वार्षिक पर्व है। यह पर्व समूचे क्षेत्र में दो-चार दिन नहीं बल्कि पखवाड़े भर तक परम्परागत उत्सवी आनन्द के साथ मनाया जाता है।

परवान पर चढ़ता है फागुन

होली का माहौल इन वनवासी अंचलों में होली से चार दिन पूर्व आमलकी ग्यारस से जोर पकड़ता है और इसी दिन से फागुनी लोक लहरियों की धूम जोर-शोर से शुरू होती है।

आमली या आमलकी ग्यारस से समूचे दक्षिणांचल में फागुनी माहौल के धूम-धड़ाके का औपचारिक आगाज़ होता है। इस दिन वागड़ अंचल में जगह-जगह देवालयों पर मेले भरते हैं और फागुन के रस-रंगों का दरिया फूट पड़ता है। आमली ग्यारस पर समूचा वनांचल सब कुछ भुलाकर दाम्पत्य रसों और रंगों के आवाहन में रमा रहता है।

आँवले का पेड़ दिलाता है जीवनसाथी

आदिवासी क्षेत्रें में आमली ग्यारस का पर्व कुँवारे युवक-युवतियों के लिए पसन्दीदा जीवनसाथी पाने की तमन्ना पूरी करने का वार्षिक पर्व होता है। इस दिन लगने वाले मेलों में कुँवारी आदिवासी युवतियां एवं युवक उल्लास के साथ हिस्सा लेते हैं और आँवला वृक्ष की पूजा तथा परिक्रमा करते हैं।

पुराने जमाने से यह मान्यता चली आ रही है कि आँवली ग्यारस के दिन लगने वाले मेलों में आँवला वृक्ष की पूजा तथा परिक्रमा करने से अगली आँवली ग्यारस से पूर्व मनोवांछित जीवनसाथी अवश्य प्राप्त हो जाता है। ग्राम्यांचलों में वेलेन्टाईन-डे से भी कहीं ज्यादा महत्त्व रखने वाली आँवली ग्यारस कुँवारे लोगों का वार्षिक महापर्व है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार आँवला वृक्ष भगवान विष्णु को प्रिय है और इसकी पूजा-परिक्रमा करने से भगवान विष्णु की कृपा प्राप्ति से जीवन में सौभाग्य का उदय होता है।

जाने कितने युगों से चली आ रही इस परम्परा के अनुसार आँवली ग्यारस पर डूँगरपुर, बाँसवाड़ा तथा आस-पास के गुजरात एवं मध्यप्रदेश के पड़ोसी जिलों भर में विभिन्न स्थानों पर आँवली ग्यारस के मेले भरते हैं जहाँ हजारों मेलार्थी पूरे उत्साह और उमंग के साथ हिस्सा लेते हैं।

पसन्दीदा जीवनसाथी की कामना से युवक-युवतियाँ श्रीकृष्ण का स्मरण कर आँवले के पेड़ की श्रद्धापूर्वक पूजा-अर्चना करते हैं, इसके चारों तरफ दीप श्रृंखलाएं सजाते हैं तथा फल, द्रव्य एवं उपहार आदि लेकर विषम संख्या में परिक्रमाएं करते हैं व हर फेरे के साथ इस वृक्ष के मूल में फलµपैसा, सूखा मेवा आदि चढ़ाते हैं। कनेर के फूल एवं पत्तियां भी अर्पित की जाती हैं।

शादीशुदा भी आते हैं आभार जताने

इन मेलों में वे लोग भी आते हैं जिन्होंने बीती आँवली ग्यारस को जीवनसाथी पाने की मन्नत ली थी और इसके बाद परिणय सूत्र में बँध गए। आमली ग्यारस के अनुष्ठान और पुण्य की बदौलत दाम्पत्य जीवन में प्रवेश कर चुके ये नव दम्पत्ति भी मेले की विभिन्न रस्मों में हिस्सा लेते हैं और आँवला वृक्ष की पुनः पूजा कर श्रीफल वधेरते हुए भगवान का आभार प्रकट करते हैं। इसके साथ ही भावी जीवन में अक्षुण्ण सुख-सौभाग्य और समृद्धि की कामना करते हैं।

लाईफ पार्टनर पाने रखते हैं व्रत

वागड़ अंचल में विभिन्न स्थानों पर हर साल आयोजित होने वाले आमली ग्यारस के मेलों में बड़ी संख्या में कुँवारी तरुणियाँ और तरुण पूरी श्रद्धा के साथ हिस्सा लेते हैं और व्रत रखते हुए आँवला वृक्ष की पूजा-परिक्रमा कर मनोनुकूल जीवनसाथी पाने के लिए मन्नतें मानते हैं। इसके अलावा गाँवों में अवस्थित आँवला वृक्षों की पूजा-अर्चना तथा परिक्रमाओं का दौर दिन भर बना रहता है।

गूँजता है फागुनी श्रृंगार

वनांचल के इस पारम्परिक पौराणिक वेलेन्टाईन डे के दिन ये युवा आँवला वृक्ष की टहनियाँ अपने हाथों में रखते हैं और फागुनी मौज-मस्ती में झूमते फागुनी श्रृंगार गीत गाते-थिरकते हुए इन्हें अपने घर ले जाते हैं। इनकी पक्की मान्यता है कि आँवला वृक्ष में बैठे देवता उनके लिए साल भर के भीतर पसन्दीदा जीवनसाथी के साथ विवाह करा ही देते हैं।

श्रृद्धापूर्वक रखते हैं व्रत-उपवास

जीवनसाथी पाने की तीव्र आकांक्षा में रमे हुए युवा फागुनी लोक लहरियाँ गूंजाते हुए मेले का माहौल श्रृंगार रसों से भर देते हैं। तरुणाई की महक बिखेरते ये समूह परस्पर गुड़ तथा इस पर्व के लिए ख़ासतौर पर बनी मिठाई ‘माज़म’ खिलाकर मुँह मीठा करते हैं। ये कुँवारे साल भर कोई उपवास करें या न करें मगर आमली ग्यारस को दिन भर उपवास जरूर रखते हैं।

विभिन्न स्थानों पर लगते हैं मेले

आमली ग्यारस पर बाँसवाड़ा जिले में मोटागांव के समीप घूड़ी रणछोड़ तीर्थ, महाबली भीम के नाम से प्रसिद्ध भीमकुण्ड धाम, मध्यप्रदेश सीमा से सटे कुशलगढ़ क्षेत्र, नाहली के मंगलेश्वर महादेव मन्दिर, डूंगरपुर जिले के जसैला एवं लिखतिया के मन्दिरों, गुजरात सीमा से सटे सीमलवाड़ा क्षेत्र सहित वागड़ अंचल के विभिन्न हिस्सों में मेलों का माहौल फागुनी रंगों की सौरभमयी वृष्टि करता है।

— डॉ. दीपक आचार्य

*डॉ. दीपक आचार्य

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