8 मार्च
महानगर मुंबई में रहने वाली रीत अपने पति और बच्चे के साथ रहती थी। रीता स्वयं भी नौकरी पेशा थी और इस दौड़ भाग वाली मुंबईया जिंदगी का हिस्सा थी। वैसे कहने को तो रीत पढ़ी-लिखी थी, नौकरी पेशा थी और आत्मनिर्भर थी किंतु उसे लगता था कि वह अपने फैसले खुद नहीं कर पाती थी। अकाउंट जॉइंट था तो जाहिर सी बात थी उसे कमाने की स्वतंत्रता थी किंतु उसे खर्च करने की नहीं। उसे घूमने की स्वतंत्रता थी किंतु कहां घूमना है इसका निर्णय पतिदेव करते थे। उसे कहीं आने-जाने की स्वतंत्रता थी किंतु किससे मिलने जुलने आना जाना है यह निर्णय उसका नहीं होता था ।कभी-कभी रीता को लगता की क्या सचमुच वह स्वतंत्र है आत्मनिर्भर है या उसके लिए एक पिंजरा है जो सुविधा अनुसार थोड़ा बड़ा है तो है फिर भी है तो बस पिंजरा ही। जहां एक छोटे पिंजरे में कैद का एहसास जल्दी होता है और अगर पिंजरा बड़ा हो तो यह एहसास कुछ देर के बाद होता है। रीता का पिंजरा भी बड़ा था तो उसे शुरू में लगा कि वह तो बड़ी आत्मनिर्भर है ।नौकरी करने जाती है अकेले आने जाने पर भी कहीं रोक-टोक नहीं है किंतु धीरे-धीरे उसे लगने लगा उसके आस पास एक बहुत बड़ा जाल है। जिसमे वह फंसती जा रही है। किंतु समझ नही आता था की क्या करें कैसे करे। खैर जिंदगी चल रही थी। किंतु गाहे बगाहे उसे अपने ऊपर सब कुछ थोपा हुआ लगता था।
रोज की ही तरह आज भी घड़ी ने पांच का अलार्म बजाया किंतु रीता का उठने का मन नहीं हो रहा था। उसे बुखार जैसा लग रहा था। जैसे तैसे खुद को बिस्तर से उठने की हिम्मत दी। और हांथ मुंह धो कर किचन में घुस गई। ।आज सुबह से ही रीता अनमनी सी थी। उसका आफिस जाने का भी मन नहीं हो रहा था। किचन में पहुंच कर उसके हाथ यंत्रवत चलने लगे। एक तरफ चाय का पानी रखा एक तरफ नाश्ता तैयार करने लगी।
किचन में खड़े खड़े ही उसने चाय पी । और सोचने लगी आज शुक्रवार है ।चलो परसो रविवार है उस दिन पुरा टाइम खूब आराम करेगी। ऐसा सोचते ही उसके चेहरे पर एक अजीब सा सुकून तैर गया। बस फिर क्या था आने वाले संडे की मृग मरीचिका में उलझ कर रीता ने सारे काम निपटा डाले। पति के लिए नाश्ता बेटे का लंच बॉक्स अपना लंच बॉक्स पति का टिफिन सब पैक हो गया और वह अपने ऑफिस चली गई। ऑफिस की फाइलों में उलझ कर कब शाम हो गई पता ही नहीं चला। लौटते समय फल सब्जी ग्रॉसरी के छोटे-मोटे आइटम खरीदती हुई वह लदी फदी घर पहुंची। फिर उसे याद आया की दोपहर में वह ऑफिस के काम निपटा रही थी की तभी उसके मोबाइल पर उसकी नंद मिली का फोन आया और वह फोन नहीं उठा पाई थी । वह सोच ही रही थी की फुर्सत में फोन अब फ़ोन करें और बात करे । इतने में उसके व्हाट्सएप पर मैसेज चमक गया। जो कि उनकी नंद मिली का था जो की पुणे में रहती थी। और उन्होंने बताया कि वह संडे की सुबह उसके घर आ रही है और मंडे की सुबह चली जाएगी। साथ ही उनके ससुराल के कुछ लोग भी होंगे जिनको मुंबई दर्शन करवाना है कुल आठ लोगों का खाना नाश्ता और मुंबई दर्शन रीता को अरेंज करना है। इस मैसेज में रीता को साफ साफ सिर्फ ये सब करने को कहा गया था । उसकी सहूलियत या उसकी इजाजत या उसका कोई अन्य प्रोग्राम तो नही है इन सब बातो को सिरे से नकार दिया गया था। मैसेज देखते ही रीता के होश उड़ गए। कहां तो उसकी खुद की तबीयत खराब थी और वह संडे को आराम करने का मंसूबा बना रही थी किंतु नंद का आना उसको अखर गया। वह सोचने लगी की नंद कभी भी उसका हाल-चाल नहीं लेती हैं ना तो उन्हें उसके किसी भी सुख-दुख से मतलब रहता है वह जॉइंट फैमिली में रहती हैं तो उनके यहां जब कोई आता है तो उसे मुंबई दर्शन करनेऔर उसके मुंबई प्रवास के लिए ही वह फोन करती हैं रीता को यह भी याद आया कि पिछले हफ्ते वह ऑफिस के काम से दिल्ली गई थी उस दरमियां उसका छोटा बेटा घर पर अकेला रह गया था हालांकि वह इतना छोटा नहीं था कि अकेले नहीं रह सकता किंतु अगर उसकी नंद उसके पास आकर रह ली होती तो सारी चीज बड़ी सुगमता से हो जाती बेटे को टाइम से खाना मिल जाता और वह भी निश्चिंत होकर ऑफिस का काम दिल्ली में निफ्ट आती किंतु नंद ने साफ मना कर दिया की भाभी मैं नहीं आ सकती हूं जबकि ना तो वह कोई जॉब करती थी और उनके भरे पूरे परिवार में उनके एक हफ्ते ना रहने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उनकी बाकी देवरानी जेठानी सब मिल कर काम कर लेती। रीता सोच में पड़ गईं। की वह क्या करे। मन ही मन घुट घुट कर संडे को मेहमान नवाजी करे या खुद के बीमार शरीर को थोड़ा सा आराम दे। पिजरे का पंछी उड़ना भूल जाता है। वैसे ही रीता फैसला करना भूल गई थी। खुद के बारे में सोचना भूल गई थी। कश्मकश में थी ।इतने में उसके छोटे से बेटे ने उसे एक चॉकलेट दिया और उससे लिपट कर बोला “हैप्पी विमेंस डी मम्मा” वह सोच में पड़ गई आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा है । महिलाएं एक से बढ़ कर एक साहसिक काम कर रही है। वह एक छोटा सा फैसला नहीं ले पा रही है। और सच तो ये है की फैसला उसने ले लिया है उस फैसले से परिवार को अवगत नही करवा पा रही है। पति की नाराजगी और घर का माहौल खराब होने का खौफ उसे कमज़ोर कर रहा था।
फिर उसने फोन उठाया और अपनी नंद को मेसेज कर ही दिया” दीदी मेरी तबियत ठीक नहीं है संडे को मैं आराम करना चाहती हूं आप या तो फिर कभी आगे का प्रोग्राम बना ले या कोई और अरेंजमेंट कर लें।थोड़ी ही देर में पति का तीखा फोन आ गया तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरी बहन को आने से मना करने की। रीता ने बड़े सामान्य स्वर में कहा ये हिम्मत मुझमें बहुत पहले आ जानी चाहिए थी किंतु देर से ही सही आ ही गई राकेश। पति ने बस फोन काट दिया रीता सोचने लगी शायद उसने पिजड़े में कोई छोटा सा रास्ता बना लिया है।
— प्रज्ञा पांडेय मनु