डिफॉल्ट

कहानी

कहानी

और कितनी सदियां…
पहाड़ों में जीने के लिए पहाड़ होना पड़ता है। जिस तरह पहाड़ धूप- छांव को सहते हुए हमेशा अपनी पीठ पर कठिनाइयों का बोझ उठाए रहते हैं, ठीक इसी तरह यहां का जनजीवन भी इतना ही कठिन व दुष्कर है कि शहरों में बसने वाले इस जीवन की कल्पना से भी सिहर जाएं….। डॉ रामकुमार सोचे जा रहा था…।
परंतु फिर भी यहां जीवन चलता है बेशक खरामा खरामा…।
कठिन जीवन और सामाजिक विसंगतियों का चोली दामन का साथ रहा है यहां…।
इसके पीछे निरक्षरता अंधविश्वास और न जाने क्या-क्या सामाजिक विकृतियां लोक जीवन में इस तरह पैठ बनाए हुए हैं कि ये कभी कभी परंपरा का हिस्सा लगने लगती हैं….।
वह सोचते सोचते अतीत की खोह में कब खो गया पता ही नहीं चला।
लगभग पचास वर्ष यानी आधी सदी पहले की बात है…, हमारे यहां इक्कतीस दिसंबर को बच्चों को दो महीने की स्कूलों में छुट्टियां पड़ती थीं। जनवरी-फरवरी छुट्टियों में बीतती और पहली मार्च को दोबारा स्कूल खुल जाते…. । हमारा परिवार कस्बे में रहता था वहां से गांव कोई बीस मील दूर था।
उन दिनों हमारे गांव में न सड़कें न बिजली न पानी कुछ भी सुविधा नहीं होती थी। यह आजादी मिलने के पहले दशक की बात है।
गांव में अभी स्कूल नहीं थे । हम जिस कस्बे में रहते थे वहां एक मिडल स्कूल था। पिताजी उस कस्बे में करियाने की एक छोटी सी दुकान करते थे और हमें पढ़ाने के लिए पिताजी ने परिवार साथ रखा हुआ था।
तायाजी गांव में रहते थे जब छुट्टियां पड़तीं तो मैं सीधा गांव आ जाता। मुझे गांव अच्छा लगता था पोखर पर जाकर खेलना पशुओं को हांकना और खेतों में ताया और ताई जी के साथ चले जाना ,मुझे अच्छा लगता था ।
दादी खूब दूध घी खिलाती दो महीने मेरी मौज लग जाती।
शायद इसलिए मुझे छुट्टियों में हर साल गांव जाने का इंतजार रहता था , चाहत रहती थी ।
यहां गांव की जिंदगी मेरे कस्बे की जिंदगी से बिल्कुल अलग थी। यहां सब कुछ रुका रुका था , लगभग आठ – दस घरों का छोटा सा गांव ।
सारे घर मिट्टी के….। घर के कमरे पीछे और आगे खुला दालान …। एक दरवाजा और कमरों के हिसाब से जितने कमरे उतनी खिड़कियां ।
दरवाजे के ऊपर ताक बने होते । कुछ ताक दीवारों में भी बने होते। कुछ ताकों में मधुमक्खियां होतीं तो कुछ ताकों में घर का छोटा – मोटा सामान । बाहर खुले आंगन कहीं-कहीं साथ ही गौशाला। आंगन की बगल में बंधे हुए पशु…।
उनको गोबर की गंध तो जैसे पच गई थी….। कच्चे फर्श होते उन पर गोबर की लिपाई होती । कभी-कभी बीच में दादी गोबर से ही लिपाई के समय फूल उकेर देती । हर हफ्ते फर्श पर गोबर की लिपाई होती और कभी-कभी दीवारों पर मकोल यानी सफेद मिट्टी की पुताई हो जाती…। अधिकांश यह तब होता जब कोई त्यौहार आता या फिर घर या गांव में कोई शादी- ब्याह होता।
घर की कड़ियों पर भी सफेद टीके लगाए जाते सितारों की तरह ।
एक विशेष प्रकार के पेड़ की लकड़ी से उसे मिट्टी में डूबो कर कड़ियों पर जगह-जगह लगाया जाता जिससे सफेद सितारे जैसे बन जाते।
जब कभी पुताई की होती तो घर दमक उठता । वरना अंदर चूल्हे चलते, अंगीठियां जलतीं…, सारा घर एक काली गुफा की तरह नजर आता।
जिसके घर में जितने ज्यादा कमरे होते वह गांव का बड़ा आदमी माना जाता । हमारे घर में भी पांच ओवरियां यानी पांच कमरे थे।पांच भाइयों की एक-एक ओवरी।
इसलिए घर बड़ा था और गांव में नाम भी बड़ा …।ताया जी अपने आपको किसी सेठ साहूकार से कम नहीं समझते थे।
खैर हमारे कस्बे की तरह यहां चहल पहल नहीं थी ।
सारा आलम शांत और मौन…।
इस बार छुट्टियां पड़ीं तो मैं ताया जी के साथ गांव आ गया ।
एक दिन की बात है दो दिन से बारिश हो रही थी और उस रात गांव में भी तीन-चार इंच बर्फ पड़ गई थी । पहाड़ों में जब बर्फ गिरती है तो सारा आलम सफेद हो जाता है दूर-दूर तक सफेद पहाड़ इस तरह आकर्षित करते हैं मानो खींचकर इनसे लिपट जाएं। शांत मोहक वातावरण बड़ा आकर्षित करता है परंतु इस बर्फ की कुछ अपनी चिंताएं भी हैं कठिनाइयां भी हैं जिन्हें सिर्फ पहाड़ का जीवन ही जानता है ….।
सुबह के कोई दस बजे होंगे। बाहर चारों ओर बर्फ ही बर्फ थी। काले बादल आसमान पर उमड़- घुमड़ रहे थे। जैसे वे अभी और बरसाना चाह रहे हों और बर्फ का दूसरा अलाट लेने के लिए आकाश के एक छोर से दूसरे छोर की ओर आ जा रहे हों ।
तभी मैंने देखा घसीटू नंगे पांव आंगन में आ रहा है उसने बोरे में कुछ डाला हुआ है और एक हाथ में बोरा और दूसरे में एक मिट्टी का बर्तन लिया हुआ है ।
वह आकर दरवाज़े की बगल में बैठ गया । उसके पैर ठंड से लाल हो गए थे।
कपड़े भी थोड़े-थोड़े गीले हो गए थे..।
जाहिर है ताया जी गांव के बड़े आदमी थे…। पूरे गांव में उनका रौब था। राजपूताना रौब…।
सर्दियों में दालान में ही एक अंगीठी जलाई होती थी। इसके इर्द-गिर्द पूरा परिवार व गांव के बड़े- बूढ़े आकर बैठ जाते थे ।
खासकर बारिशों की सर्द रातों में तो देर रात तक वहीं अंगीठी के पास बैठे रहते।
कभी रामायण के किस्से तो कभी महाभारत की कथाएं, कभी भागवत का कीर्तन तो कभी लोक कथाओं का दौर चलता…।
पुरुष अंगीठियां के पास बैठे किस्सागोई करते और औरतें चरखे पर ऊन कातती रहतीं और साथ-साथ किस्से सुनती रहतीं ।
बड़ी देर से आया बेचारा घसीटु गीले कपड़ों में ही वहां बैठा रहा । शायद उसे अंगीठी तक आने की इजाजत नहीं थी ।
थोड़ी देर बाद ताई कहीं से एक टीन का पत्रा ले आई और उस पर उसने चिमटे से जलते हुए कुछ कोयले अंगीठी से निकाले और घसीटू के सामने रख दिए ।
घसीटू कोयलों से अपने हाथ पैर सेंकने लगा….। मैं यह सब देखे जा रहा था । मेरे बाल – मन में इस दृश्य को देखकर कई प्रश्न उठ रहे थे। यह नंगे पांव क्यों आया? यह अंगीठी पर आग क्यों नहीं सेंकता? बगैरा -बगैरा…।
मैं उसे देखे जा रहा था…,
उसने अपने फटे हुए उस बोरे में से परिवार के चार-पांच जोड़े जूते निकाले जिनको वह सिल कर लाया था । अब ताया जी बोले-” तू जूते इतने दिनों बाद लाया, तेरे को पता नहीं हमारे पास इतने जूते थोड़ी हैं । जो नए जूते हैं वे भी फट जाएंगे इस तरह तू इतने इतने दिनों बाद जूते सिल कर देगा तो…?”
ताया ने उस पर अपना रौब जमाते हुए कहा …।
वह बेचारा अपना पक्ष रखते हुए कहता रहा….,
,,”बझिया मेरी घरवाली बीमार हो गई थी । उसका दवा दारू करते-करते मुझे समय नहीं मिला । और बेटा आपको पता ही है इस काम को हाथ नहीं लगाता । मैं क्या करता अकेला आदमी…. ? इसलिए कुछ देरी हो गई…। बझिया आप नाराज न हों…. । आगे के लिए ध्यान रखूंगा। आपका काम समय पर कर दूंगा …।”
उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा।
तायाजी की टोन में थोड़ी नर्मी आ गई थी ।
“ठीक है आगे से ध्यान रखना । पहले यह बता तूने रोटी खाई है कि नहीं…।”
“बझिया सच कहूं तो शाम को भी रोटी नहीं खाई है हमने। आटा नहीं था घर में। कुछ मक्का थी बोरी में उसे उबालकर नमक डालकर हम सब ने खा लिया था…। “
मैं यह सब बड़े ध्यान से सुन रहा था।

तभी ताई ने दरवाजे के ऊपर बने ताक में से एक एल्युमिनियम की थाली और शीशे का गिलास निकाला शायद यह इनके लिए ही रखा हुआ था और अंदर से रोटियां और पानी लाकर उसने उसके आगे उस थाली और गिलास में डाल दिया ।
उसने भरपेट खाना खाया और न जाने कितनी आशीषें ताया को दीं। वह कहे जा रहा था-” बझिया भगवान आपका भला करें आपका परिवार सदा हंसता बसता रहे ,आपके घर धन दौलत की बारिश होती रहे, आपके खेतों में खूब धन-धन्य हो…। “
‘बाबा तू इतनी बर्फ में घर से नंगे पांव ही आया है और अब नंगे पांव ही जाएगा।’
जब कोई नहीं था तो मैंने उसे पूछ लिया। “नहीं बझिया, मैं गांव के बाहर नीचे पोखर के पास जूते खोल आया हूं, वहां जाकर पहन लूंगा।’
… और यह कहकर वह अपना अनाज का झोला व लस्सी का बर्तन उठाकर सहमा सा दरवाजे के बाहर निकल गया… ।
मैं उसे आंगन से नीचे उतरते हुए नंगे पांव बर्फ पर चलते हुए तब तक देखता रहा जब तक वह आंखों से ओझल नहीं हो गया…।
कितना दर्दनाक दृश्य था…।
वर्षों बीत गए परंतु यह दृश्य आज भी मेरी आंखों के सामने कभी-कभी वैसे का वैसा ही खड़ा हो जाता है….।
मैं अतीत की खोह से बाहर निकाला तो मैंने टेबल पर पड़ा आज का अखबार उठाया….।
जैसे ही पहले पृष्ठ पर छपी खबर पर नजर पड़ी तो एक बार फिर मन पीड़ा से भर आया ….।
खबर यह थी कि किसी स्कूल में गांव के स्वर्ण बच्चों ने दलित बच्चों के साथ मिड डे मील इकट्ठे बैठकर खाने से इनकार कर दिया था….।
मेरे मुख से एक बार फिर अनायास निकल गया -“समाज में व्याप्त इस कोढ़ को समाप्त होने में और कितनी सदियां लगेंगीं….।
अशोक दर्द डलहौजी चंबा हिमाचल प्रदेश

*अशोक दर्द

जन्म –तिथि - 23- 04 – 1966 माता- श्रीमती रोशनी पिता --- श्री भगत राम पत्नी –श्रीमती आशा [गृहिणी ] संतान -- पुत्री डा. शबनम ठाकुर ,पुत्र इंजि. शुभम ठाकुर शिक्षा – शास्त्री , प्रभाकर ,जे बी टी ,एम ए [हिंदी ] बी एड भाषा ज्ञान --- हिंदी ,अंग्रेजी ,संस्कृत व्यवसाय – राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में हिंदी अध्यापक जन्म-स्थान-गावं घट्ट (टप्पर) डा. शेरपुर ,तहसील डलहौज़ी जिला चम्बा (हि.प्र ] लेखन विधाएं –कविता , कहानी , व लघुकथा प्रकाशित कृतियाँ – अंजुरी भर शब्द [कविता संग्रह ] व लगभग बीस राष्ट्रिय काव्य संग्रहों में कविता लेखन | सम्पादन --- मेरे पहाड़ में [कविता संग्रह ] विद्यालय की पत्रिका बुरांस में सम्पादन सहयोग | प्रसारण ----दूरदर्शन शिमला व आकाशवाणी शिमला व धर्मशाला से रचना प्रसारण | सम्मान----- हिमाचल प्रदेश राज्य पत्रकार महासंघ द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए पुरस्कृत , हिमाचल प्रदेश सिमौर कला संगम द्वारा लोक साहित्य के लिए आचार्य विशिष्ठ पुरस्कार २०१४ , सामाजिक आक्रोश द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में देशभक्ति लघुकथा को द्वितीय पुरस्कार | इनके आलावा कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित | अन्य ---इरावती साहित्य एवं कला मंच बनीखेत का अध्यक्ष [मंच के द्वारा कई अन्तर्राज्यीय सम्मेलनों का आयोजन | सम्प्रति पता –अशोक ‘दर्द’ प्रवास कुटीर,गावं व डाकघर-बनीखेत तह. डलहौज़ी जि. चम्बा स्थायी पता ----गाँव घट्ट डाकघर बनीखेत जिला चंबा [हिमाचल प्रदेश ] मो .09418248262 , ई मेल --- [email protected]

Leave a Reply