इज़रायल की शिक्षा व्यवस्था पर सोच-विचार
मार्च के अंत में इज़रायल में 2025 का बजट पारित हुआ। बजट की स्वीकृति ने नेतन्याहू की गठबंधन सरकार को पतन से बचाया, उसे अटल साबित कर दिया तथा घरेलू और विदेश नीति को लागू करने के लिये ज़रूरी संसाधन प्रदान किये हैं। इज़रायल डेढ़ साल से ईरान, गाज़ा, लिबनान, इराक, और यमन जैसे तानाशाही देशों से अपने अस्तित्व के लिये लड़ाई लड़ रहा है। वास्तव में इज़रायल को अकेले सारी इस्लामी दुनिया का सामना करना पड़ रहा है। यह जंग अपनी ओर विशाल मानव और भौतिक संसाधन खींच रही है। गाज़ा और लिबनान में एक दिन की भीषण लड़ाई की लागत 50 करोड़ शेकेल होती है। और लड़ाई की तीव्रता कम होने के समय एक दिन का ख़र्च सात करोड़ तक ‘घट जाता है’। सैनिक ख़र्च युद्ध से पूर्व वाले वर्षों की तुलना में दो गुना बढ़ गया है और 110 अरब शेकेल की रक्म के साथ बजट के अन्य मदों में प्रथम आया है। लेकिन आज यह स्पष्ट है कि सैनिक व्यय में और बढ़ोतरी करनी पड़ेगी। जंग के ख़र्चे का मतलब केवल हथियार या गोला-बारूद नहीं है। लामबंद जवानों को वेतन और उनके परिवारों को आर्थिक सहायता देना, जंग से प्रभावित कारोबारियों का समर्थन करना, ‘हमास’ और ‘हिज़्बुल्ला’ के मिसाइलों से ध्वस्त मकानों और उद्यमों का पुनर्निर्माण करना भी सरकार का दायित्व है। मोर्चे पर गये हुए विद्यार्थियों को वित्तीय सहायता दी जाती है, उनके परिवारजनों को भी विश्वविद्यालयों में ट्यूशन शुल्क से छूट मिलती है। गाज़ा और लिबनान से सटे नगरों और बस्तियों में लौट रहे वासियों को आर्थिक सहारा दिया जा रहा है। युद्ध के समय भारी ख़र्चे के कारण पेटियां कसनी पड़ती हैं। वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें बढ़ रही हैं, आयकर और सामाजिक बीमा कर भी बढ़ रही है। सब मंत्रालयों के ख़र्चों में पांच पांच प्रतिशत की कटौती हुई है। OECD (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन) के 38 देशों में इज़रायल की जनता का जीवन स्तर निम्न माना जाता है।
फिर भी इज़रायल की अर्थ व्यवस्था मज़बूत सिद्ध हुई और सब कठिनाइयों और चुनौतियों पर विजय पाने में सफल हो रही है। लंबे युद्ध के बावजूद पिछले वर्ष की तुलना में बजट में 100 अरब शेकेल अर्थात 20 प्रतिशत की बढ़ोत्री हुई है। यह देश के इतिहास में सब से बड़ा बजट हुआ है। सरकार काले धन के विरुद्ध उपायों को सख़्ती से लागू कर रही है और निवेशक इज़रायल को लेकर उत्साहित हुए हैं।
नए बजट में अर्थव्यवस्था के विभिन्न शाखों, हाई-टेक के विकास पर, रिहायशी मकानों के निर्माण आदि पर राशि आवंटित की गई। सार्वजनिक परिवहन में 75 प्रतिशत आबादी के लिये यात्रा का किराया घटाया गया और 67 साल से अधिक आयु के लोग 25 अप्रैल से लेकर रैल गाड़ी समेत यातायात के हर सार्वजनिक साधन में निःशुल्क यात्रा करने लगे।
युद्ध की पृष्ठ-भूमि में बजट के दूसरे मदों को देख कर सरकार की प्राथमिक्ताओं का पता चलता है। सैनिक ज़रूरतों के बाद (110 अरब शेकेल) सरकार ने शिक्षा में (94 अरब), राष्ट्रीय बीमा (61 अरब) तथा स्वास्थ्य सेवा प्रणाली (60 अरब) में सब से अधिक पूंजी लगाई। शिक्षा प्रणाली का बजट इस वर्ष देश के इतिहास में सब से बड़ा है। ग्यारह करोड़ तीस लाख शेकेल की कटौती के बाद भी शिक्षा का बजट पिछले साल की तुलना में 9 प्रतिशत बढ़ गया है। शिक्षा बजट के बढ़ने की गति समझने के लिये हमें कुछ तथ्य देखने चाहिये। 2012 में वह 36 अरब के बराबर था, तो 2022 में दोगुना बढ़कर 68 अरब हो गया और इस वर्ष 94 अरब तक पहुंचा है। याद रहे कि उच्च शिक्षा संस्थानों को भी 2025 के बजट में 14 अरब शेकेल की राशि मिली है। इन सब को जोड़ कर देखें तो शिक्षा की स्थिति ज़्यादा प्रभावशाली होगी। शिक्षा में लगाए जानेवाले पैसे सैनिक बजट के बराबर हो गए, और वह भी हो रहे युद्ध के समय!
आजकल सारी दुनिया में शिक्षा को बड़ा महत्व दिया जाता है। शिक्षा स्तर समाज की प्रगति के मुख्य द्योतकों में माना जाता है। शिक्षा और नैतिक मार्गदर्शन हर व्यक्ति के विकास के लिये आधारशिला का काम करते हैं। उन्हीं के बलबूते हर इंसान को अपनी क्षमताओं और रुचियों का पता चलता है, उसकी जीवन-दृष्ठि निर्धारित होती है और उसे समाज में अपने स्थान का भान होता है। हर राष्ट्र जनता को शिक्षा-दीक्षा प्रदान कर के अपनी मानव संपदा का पूरा लाभ उठा सकता है। अलग अलग व्यक्तियों और सारी जनता के लिये बेहतर भविष्य का निर्माण करने में शिक्षा की मूल भूमिका है। मज़बूत और न्ययप्रिय समाज, फलती-फूलती और सफल अर्थव्यवस्था का आधार ही अच्छी शिक्षा है। इज़रायल में शिक्षा के क्षेत्र में राजनीति का लक्ष्य ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को ज्ञान और कौशल प्रशिक्षण देकर उनके शैक्षिक स्तर में सुधार करना है।
शिक्षा के बजट में लगातार बढ़ोत्री का कारण केवल सरकार द्वारा शिक्षा व्यवस्था को सुधारने की इच्छा ही नहीं, अपितु जनसंख्या में वृद्धि जैसे कुछ प्राकृतिक कारक भी हैं। इज़रायल में प्रजनन दर ऊंची बनी हुई है। इससे प्रति छात्र आवंटित धनराशि बुरी तरह प्रभावित होती है। OECD संगठन के देशों की तुलना में प्रति छात्र राशि में इज़राइल पीछे रहा है, जब्कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GDP) के सापेक्ष शिक्षा के लिए धन मुहैया कराने के मामले में इजरायल अधिकतर देशों से आगे है।
1949 में स्वतंत्रता का युद्ध समाप्त होने के बाद इज़रायल में जो सब से पहले कानून बनाए गए उनमें 5 से 15 साल की उम्र में अनिवार्य मुफ़्त शिक्षा का कानून भी शामिल है। कालांतर में इस कानून में संशोधन हुए और आज अभिभावकों को 3 से 17 साल की उम्र तक अपने बच्चों को अनिवार्य तौर पर शैक्षिक संस्था में भेजना है और यह सुनिश्चित करना है कि बच्चे कक्षाएं न छोड़ें। अनिवार्य शिक्षा (14 साल) की उम्र को लेकर इज़रायल OECD के देशों की सूची में पहले स्थान पर है।
1953 में सरकारी शिक्षा का कानून पारित हुआ जिसका लक्ष्य था विभिन्न राजनीतिक आंदोलनों से संबंधित स्कूलों को एक प्रणाली में एकीकृत करना और एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली स्थापित करना। लेकिन यह पूरी तरह से नहीं हो पाया। अरब और यहूदी में विभाजन के अलावा यहूदियों के स्कूल भी धर्मनिर्पेक्ष और धार्मिक में विभाजित हुए। फिर कुछ धार्मिक स्कूल सरकारी शिक्षा प्रणाली का भाग बने, जो कुछ कट्टर धार्मिक संगठनों के अधीन रहे। सब शैक्षणिक प्रणालियों को सरकार की ओर से समान राशि और सेवाएं प्रदान की जाती हैं।
कानून निर्माण की प्रक्रिया जारी रही तो 2003 में स्कूली बच्चों के अधिकारों संबंधि और 2007 में उच्च संस्थाओं के विद्यार्थियों के अधिकारों संबंधि कानून लागू हुए। शिक्षकों के अधिकार भी एक विशेष कानून के द्वारा सुरक्षित हैं। इस कानून के अनुसार शिक्षकों को अन्य सरकारी कर्मचारियों की तुलना में नौकरी छूटने से बेहतर सुरक्षा मिलती है।
तो आइये देखें कि शिक्षा के क्षेत्र में जो समस्याएं पैदा होती हैं, क्या उनका समाधान भारी वित्तीय इंजेक्शन से ही किया जा सकता है? क्या सिर्फ़ भारी मात्रा में धन का निवेश कर के शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि की जा सकती है और शिक्षा को विकास का महत्वपूर्म माध्यम बनाया जा सकता है? इसमें कोई संदेह नहीं कि पैसे प्रभावशाली साधन हैं लेकिन इतिहास गवाह है कि बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि यह साधन किनके हाथों में है। इज़रायली स्कूली व्यवस्था की सब से बड़ी ख़ामी यह है कि देश में एकिकृत शिक्षा प्रणाली और पाठ्यक्रम नहीं है। वास्तव में देश में अरब शिक्षा प्रणाली, धार्मिक यहूदी शिक्षा प्रणाली और धर्मनिर्पेक्ष यहूदी शिक्षा प्रणाली चलती है। अब हम इन अलग अलग समुदायों के शैक्षणिक ढांचों की विशेषताओं और समस्याओं पर प्रकाश डालने की कोशिश करेंगे।
इज़रायल की कुल आबादी में 20 प्रतिशत (20 लाख) अरबी क़ौम के लोग हैं जिनमें स्कूली आयु वर्ग के बच्चों की संख्या 31 प्रतिशत है। यह अनुपात यहूदी आबादी से (23 प्रतिशत) अधिक है। इस तरह अरब समुदाय की शिक्षा का सवाल विशेष दर्जा प्राप्त करता है। अरब शिक्षा व्यवस्था भी एकीकृत नहीं, विषम है। यह पांच अलग प्रणालियों में विभाजित है यानी अरब, द्रूज़ी, चेरकेसी, बेदूई और ईसाई प्रणालियों में। द्रूज़ और ईसाई स्कूल अपने धार्मिक समुदायों से प्रभावित हैं तथा अरब, चेरकेस और बेदूई इस्लाम से। उन सब की पढ़ाई का माध्यम अरबी भाषा है जो कि आगे चल कर इज़रायली समाज में उनके समावेश होने में बाधा साबित होती है। अरब युवक युवतियां हमारे पड़ोसी अरब देशों के अपने समवयस्कों से इतर आधुनिक, उदार और सुसंस्कृत समाज की सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। उन्हें मुफ़्त शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पूरे अधिकार प्राप्त हैं। यहूदियों के मुकाबिले उन्हें कुछ अधिक लाभ भी हासिल हैं जैसे फ़ौज में तीन साल की अनिवार्य सेवा से छूट। 1961 में इज़रायली अरबों का औसत शिक्षा स्तर 1.2 साल था, तो 2015 तक यह स्तर दस गुणा बढ़कर 12 साल हो गया। 1990 ही में अरबों का औसत शिक्षा स्तर यहूदियों के बराबर हो गया।
शिक्षा मंत्रालय सब समुदायों को समान धनराशि अवंटित करता है, लेकिन शिक्षा के लिये संसाधनों के स्रोत और भी होते हैं। उदाहरण के लिये प्राथमिक कक्षाओं में 30 प्रतिशत घंटों का भुगतान स्थानीय प्रशासन (नगरपालिका) के बजट से, अशासकीय संस्थाओं की सहायता और निजी दान से किया जाता है। लेकिन अरब नगरों और बस्तियों में ऐसे स्रोत मौजूद नहीं हैं। स्थानीय प्रशासन के पास पैसे नहीं है क्योंकि आम तौर पर अरब वासी स्थानीय कर चुकाना आवश्यक नहीं समझते, अशासकीय संस्थाएं दूसरे उद्देश्यों के लिये पैसा इकट्ठा करती हैं और अभिभावक स्कूलों पर फूटी कौड़ी तक ख़र्च नहीं करते।
अरब स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता संतोषजनक नहीं है। स्कूल की पढ़ाई समाप्त करने पर 74 प्रतिशत यहूदी छात्र मेट्रिक पास होते हैं, तो अरबों में यह संख्या 47 प्रतिशत है। उल्लेखनीय है कि द्रूज़ और ईसाई छात्र पढ़ने में ज़्यादा बड़ी उपलब्धियों का प्रदर्शन करते हैं।
इससे पता चलता है कि पढ़ाई में लगन और सफलता बड़ी हद तक जनता, जाति, जनजाति आदि समूहों की सांस्कृतिक विरासत और जीवन शैली में अंतर्निहित हैं। सारे समाज की सांस्कृतिक परंपराएं, परिवारों के पुश्तैनी रस्म-ओ-रिवाज, धार्मिक मान्यताएं आदि शिक्षा की अभिप्रेर्णा को सशक्त या कमज़ोर बना देती हैं। सभी जानते हैं कि इस्लामी समुदाय रूढ़िवादी है। और अरब युवक-युवतियां ज्ञान का आत्मसात करने में विशेष सफलताएं प्राप्त कर नहीं सके। उदाहरण के लिये सऊदी अरब शिक्षा व्यवस्था में ख़ूब पैसा लगाता है, जो GDP के अनुपात में युरोप के अधिकतर विकसित देशों कि तुलना में कहीं ज़्यादा है। लेकिन पठन और विज्ञान पर अंतर्राष्ट्रीय परीक्षाओं में सऊदी अरब के छात्र लगातार पीछे रहते हैं, उन्हें सब से कम अंक मिलते हैं। सिर्फ़ एक प्रतिशत छात्रों ने परीक्षाओं में 60% अंक प्राप्त किये। विश्व के सब से धनवान देशों में से एक कतार और दूसरे अरब देशों की यही दयानीय हालत है। इस्लामी देशों में अधिकतर समय मज़हबी किताबों के अध्ययन पर जाता है और ‘धर्मनिर्पेक्ष’ विज्ञान का बहुत सम्मान नहीं किया जाता है। और जिन स्कूलों में बच्चों का ब्रेनवॉशिंग किया जाता है, वहां पढ़ने में उपलब्धियां कहां से आएं? अमेरिका में पूर्ण शिक्षा व्यवस्था और प्रति छात्र पर विश्व में सब से ज़्यादा पैसा ख़र्च किया जाता है। लेकिन जब से राष्ट्रपति कार्टर द्वारा स्थापित शिक्षा मंत्रालय ने पाठशालाओं में विशेष राजनैतिक विचारधारा का प्रचार-प्रसार चलाया, तब से शिक्षा की गुणवत्ता गिर गई, परीक्षाओं के परिणाम विश्व में सब से पीछे रहे। उल्लेखनीय है कि अरब देशों से आए बहुत से यहूदियों तथा कट्टर धार्मिक यहूदियों में आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने की रुचि कम है। मदरसों के छात्रों की तरह धार्मिक यहूदियों के बच्चों को ज्ञान के अध्ययन पर समय नहीं बचता।
इज़रायल के अरब स्कूलों में लड़कियां पढ़ने में लड़कों की तुलना में ज़्यादा सफल होती हैं और अकसर विश्वविद्यालयों में अपनी पढ़ाई जारी रखती हैं। लेकिन पढ़ाई समाप्त करने पर उनके लिये रोज़गार पाने की संभावनाएं बहुत सीमित हैं। रूढ़िवादी अरब समुदाय महिलाओं को नौकरी करने के लिये प्रेरित नहीं करता।
मेट्रिक पाने के बाद कुछ अरब युवक-युवतियां आगे पढ़ने का मन बनाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि इज़रायली विश्वविद्यालयों में अरब विद्यार्थियों की संख्या बढ़ रही है। सरकार इसको प्रेरणा देती है। जिस तरह भारत में अनुसूचित जातियों को सुविधाएं मिलती हैं, उसी तरह अरबों को भी पढ़ाई में प्रोत्साहन दिया जाता है, छात्रवृत्तियां और आर्थिक सहायता, रियायतें और छूट मिलती है। फिर भी अधिकतर अरब युवक जोर्डन और दूसरे अरब देशों में पढ़ने के लिये जाते हैं, हिब्रू भाषा न जानने के कारण या पाठ्यक्रम का भार न उठा पाने के डर से।
यहूदियों के धार्मिक पाठशालाएं भी अलग अलग होती हैं। सरकारी धार्मिक पाठशालाओं का वही पाठ्यक्रम है जो सरकारी धर्मनिर्पेक्ष पाठशालाओं में प्रचलित है। यह पूरी तरह से आधुनिक शिक्षा है। अंतर यह है कि उनके पाठ्यक्रम में धार्मिक शिक्षा (पवित्र ग्रंथों का अध्ययन) के अतिरिक्त घंटे शामिल हैं। इतिहास और साहित्य जैसे विषय उन्हें उनके धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पढ़ाए जाते हैं। अधिकांश सरकारी धार्मिक स्कूलों में लड़के लड़कियां अलग अलग पढ़ते हैं मगर 20 प्रतिशत स्कूलों में मिश्रित कक्षाएं हैं। इन स्कूलों में धर्मनिर्पेक्ष छात्रों की काफ़ी बड़ी संख्या है। ये पाठशालाएं धार्मिक Zionism के आंदोलन की विचारधारा से प्रभावित हैं। उनमें राष्ट्रभक्ति की भावनाओं को प्रोत्साहन देने पर जोर दिया जाता है। इस लिये यह आश्चर्य की बात नहीं कि इन पाठशालाओं के 100 प्रतिशत ग्रेजुएट छात्र सेना में भरती होते हैं और लड़ाकू इकाइयों में सेवा करते हैं। उनके धर्मगुरू लड़कियों के सेना में भरती होने का विरोद्ध करते हैं। इस लिये सिर्फ़ 25 प्रतिशत लड़कियां फौजी सेवा करती हैं। शेष लड़कियां राष्ट्रीय सिविल सेवा में शामिल होती हैं।
यहूदी शिक्षा प्रणाली में स्वतंत्र धार्मिक पाठशालाओं का नेटवर्क भी है जो यहूदी धर्म के कट्टर धाराओं के अंतर्गत चलती हैं। ये स्वयं को ‘खरेदी’ (भगवान के परम भक्त) कहते हैं। इन धाराओं का नेतृत्व दो कट्टरपंथी धार्मिक दल करते हैं – ‘यहदूत हतोरा’ (युरोप मूल के यहूदी) और ‘शस’ (इस्लामी देश मूल के यहूदी)। इन स्कूलों को पूर्ण राज्य समर्थन मिलता है लेकिन अपने पाठ्यक्रम तैयार करने में उनको पूरी स्वतंत्रता है। ‘ख़रेदी’ यहूदियों में जन्म दर अधिक होती है। इज़रायल के प्रथम दिनों में इस समूह की संख्या बहुत कम थी लेकिन अधिक जन्म दर के कारण आज सब यहूदी स्कूली छात्रों में उनकी संख्या 30 प्रतिशत हो गयी है। ‘ख़रेदी’ यहूदियों की अनगिनत धाराएं हैं जो अक्सर आपस में लड़ती झगड़ती हैं। हर धारा की अपनी अपनी पाठशालाएं और अपने अपने पाठ्यक्रम हैं। उनमें शिक्षा मंत्रालय के नियम लागू नहीं होते। हिब्रू, अंग्रेज़ी, साहित्य, गणित जैसे बुनियादी विषय 84 प्रतिशत ख़रेदी हाई स्कूलों में बिल्कुल पढ़ाए नहीं जाते हैं और 56 प्रतिशत प्राथमिक स्कूलों में सीमित रूप से पढ़ाए जाते हैं। ऐसी पढ़ाई किसी मदरसे से मेल खाती है। 76 प्रतिशत ख़रेदी बच्चों को ऐसे अध्यापक पढ़ाते हैं जिनके बारे में शिक्षा मंत्रालय के पास कुछ भी जानकारी नहीं है। ख़रेदी यहूदियों की पाठशालाओं में छात्रों की प्रगति पर निगरानी परीक्षाएं नहीं होती हैं और जहां होती हैं, वहां परिणाम दयनीय होते हैं। यह ख़राब अधूरी शिक्षा युवाओं को आधुनिक समाज की चुनौतियों के लिये तैयार नहीं करती, कौशल प्रशिक्षण भी नहीं देती। युवक-युवतियां एक बंद समुदाय में रहते हैं। स्कूली पढ़ाई समाप्त करने पर युवक विशेष धार्मिक संस्थानों के छात्र बन जाते हैं और सरकारी भत्ता पाकर गुज़र-बसर करते हैं। अधिकांश ख़रेदी सामाजिक जीवन में भाग नहीं लेते, काम नहीं करते और इक्के-दुक्के युवक सेना में भरती होते हैं। यह तेज़ी से बढ़ता समुदाय देश के लिये भारी बोझ बन गया है। मगर उन्हें देश के विधियों और नियमों के अनुसार जीने पर बाध्य नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इज़रायल में कोई भी राजनीतीक दल, चाहे वह वामपंथी या दक्षिणपंथी हो, संगठन के आधार पर ही सरकार बना सकता है। हर सरकार धार्मिक पार्टियों के वोट बेंक पर निर्भर करती है। इसका फ़ायदा उठा कर ख़रेदी दल सरकारों का ब्लैकमेल कर के अपने लिये अतिरिक्त सुविधाएं और लाभ प्राप्त करते हैं और देश के बजट का दोहन करते हैं।
सरकारी धर्मनिर्पेक्ष पाठशालाएं इज़रायल में स्कूली शिक्षा का सब से बड़ा भाग है। ये सरकारी धार्मिक स्कूलों के साथ युवा पीढ़ी को शिक्षा प्रदान करते हैं जो आगे चलकर हमारे देश की अग्रिम अर्थव्यवस्था, विज्ञान और प्रौद्योगिकी का आधार बनेंगे, जिनके कारण हमारे छोटे देश की गिनती दुनिया के बड़े बड़े, विकसित और प्रभावशाली देशों में होती है। धर्मनिर्पेक्ष पाठशालाएं शिक्षा के नए नए तौर-तरीके तथा तकनीक अपना कर बड़ी तेज़ी से प्रगति कर रही हैं। लेकिन ये भी राजनीतिक कशमकश के बाहिर नहीं रह पाए।
राजनयिकों को यह भान है कि भविष्य का निर्माण आज शुरू हो रहा है और वे स्कूल के माध्यम से सारे समाज को प्रभावित करने के लिये एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं। इज़रायल में शिक्षा के ढांचे का चार मुख्य शिक्षा प्रणालियों में बंटवारा (अरब, ख़रेदी, सरकारी धार्मिक, सरकारी धर्मनिर्पेक्ष) इस देश के वैचारिक फूट और मनमुटाव का साक्ष्य है। अरब राजनैतिक दल अरब पाठशालाओं की देखभाल करते हैं, कट्टर धार्मिक यहूदी पार्टियां अपने समुदाय की पाठशालाओं का निरिक्षण करती हैं, सरकारी धार्मिक स्कूल दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी पार्टियों की विचारधारा के दायरे में हैं तथा धर्मनिर्पेक्ष सरकारी सकूलों पर वामपंथी दलों का प्रचार-प्रसार टिका रहा है, यद्यपि धर्मनिर्पेक्ष स्कूलों में वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों के प्रचार का असर महसूस होता है। विभिन्न राजनैतिक शक्तियों के नेता कट्टर विरोधी विचार रखते हैं। वे युवा पीढ़ी को अपने पक्ष में मोड़ने के लिये कोई कसर नहीं छोड़ते और इस तरह समाज में तनाव को हवा देते हैं, लोगों में फूट डालते हैं और अलगाववादी की विचारधारा उत्पन्न कराते हैं।
उच्च शिक्षा भी अपवाद नहीं है। हमारे इस लेख का लक्ष्य इज़रायली उच्च शिक्षा संस्थाओं की उपलब्धियों का विश्लेषण करना नहीं है। हमें बस यह स्पष्ट करना है कि इज़रायली विश्वविद्यालयों का प्रशासन एक मुखर वामपंथी है और इसी वैचारिक आधार पर यहां स्थाई शिक्षकों और अनुसंधान के विषयों का चयन किया जाता है, पाठ्यक्रमों को स्वीकृति दी जाती है। वास्तव में एक विशेष विचारधारा में रंगे हुए विज्ञान और अनुसंधान पर बजट का गबन हो रहा है। वैज्ञानिक अनुसंधान और अध्ययन की निष्पक्षता और गुणवत्ता राजनीतिक वरीयता का शिकार बन जाती हैं। और तो और, सेंसरशिप एक सामान्य बात हो गया है, नौकरशाही पनपती है और भाई-भतीजावाद व्याप्त है। अध्यापकों और विद्यार्थियों में असहमति और असंतोष दबा कर, उनको अपने दृष्टिकोण का बचाव करने से रोक कर अनुसंधान और अध्ययन-अध्यापन का स्तर थोड़े ही बढ़ता है।
मुझे पूर्वी एशिया अध्ययन विभाग के एक शिक्षक होने के कारण भारत से संबंधित पढ़ाई में पक्षपात और पूर्वाग्रह विशेषकर अखरते हैं। हमारे विभाग में भारत के राजनैतिक और आद्यात्मिक जीवन को पक्ष्पातपूर्ण रूप से प्रस्तूत किया जाता है। भारत में आजकी राजनीतिक स्थिति को लेकर तथ्यों और घटनाओं के निष्पक्ष विश्लेषण की जगह हमारे विभाग ने वामपंथी और सरकार विरोधी तत्वों से हमदर्दी और एकजुटता जताई। इस तरह विभाग ने भारत में आंतरिक सियासी संघर्ष में एक पक्ष का समर्थन किया। विभाग के अध्यापक कॉग्रेस पार्टी, समाजवादी पार्टी और असदुद्दीन ओवैसी की नज़रों से भारत की परिस्थिति देखते हैं। विडंबना यह है कि इज़रायली भारतविद उन सियासी ताकतों के पक्षधर बने हैं जो इज़रायल के अस्तित्व के धुर विरोधी और ख़ूनख़्वार आतंकी संगठन ‘ख़मास’ के समर्थक हैं। यहां तक कि हमारे लेक्चरर हिंदुत्व को नाज़ीवादी आंदोलन बताते हैं। अनेक पाश्चात्य विश्वविद्यालयों की भी यही दशा है जो वामपंथी नज़रिया फैलाने में जुटे हैं। उदाहरण के लिये अमेरीका के युस्टन वि.वि. में ‘लिव्ड हिंदू रिलिजन’ नामक कोर्स के सिलेबस को लेकर विवाद हो गया है। उसमें हिंदू धर्म को एक प्राचीन जीवंत परंपरा के बजाय एक औपनिवेशिक निर्माण और राजनीतिक उपकरण के रूप में दर्शाया गया। और हिंदुत्व को हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा इस्लाम को दबाने का साधन बताया गया है। लेकिन अमेरिका में भारत मूल के बहुत से विद्यार्थी हैं जिन्होंने इस नज़रिये का विरोध किया। इज़रायली छात्र अपने शिक्षकों पर भरोसा करते हैं और उनकी बातों को सच मान लेते हैं।
अफ़सोस की बात है कि इज़रायल में विभिन्न समुदाय अपनी ओर किसी भी आलोचना का जवाब आक्रोश और आक्रमकता से देते हैं। अरब अपने आलोचकों को नसलवादी कहते हैं, धार्मिक यहूदी हर आलोचना को यहूदी विरोधी भावना उकसाने की कोशिश बताते हैं और जो लोग वामपंथी गतिविधियों से असंतुष्ट हैं उन्हें फ़ासीवादी का लेबिल लगाया जाता है। सब के सब दूसरों के हितों की अनदेखी कर के अपने अपने लाभों और सुविधाओं के लिये लड़ रहे हैं और लगता है कि ये आपस में एक तरह की प्रतियोगिता कर रहे हैं कि कौन बजट से निकाले ज़्यादा और दान करे कम।
शिक्षा में भारी रक्म लगाना पर्याप्त नहीं है। सारे समाज और हर व्यक्ति के सफल विकास के लिये सब नागरिकों को सदाचार और ऐसे नैतिक आदर्शों का पालन करना चाहिये जो लोगों में आपसी सम्मान और भागीदारी प्रेरित करें। मुझे आशा है कि इज़रायल को अपने बर्बर आक्रामक पड़ोसियों को हराने में अधिक समय नहीं लगेगा। और यह जीत शिक्षा समेत समाज के हर क्षेत्र में सुधार और सामान्य तर्क की बहाली का आरंभ होगी। सारी दुनिया में परिवर्तनों की बयार बह रही है।
— डॉ. गेनादी श्लोम्पेर