कसक
गुढ़ लगती वह इतनी
जैसे हो कोई वेद,
किस तरह समझे भला
उसके नैनो के भेद।
बिखरी बिखरी सी लट
नहीं करे कोई श्रृंगार
मासूम लगे वो इतनी
तो कैसे न होगा प्यार।
देख लेती जब कभी
वह यूँ ही अनायास,
लगती है वह जैसे
धर्मवीर की उपन्यास।
हर किसी में जरा सी
छुपी रहती कोई सुधा
हर किसी के दिल में
बसता है एक चंदर।
— सविता सिंह मीरा