ग़ज़ल
कि जब मेरी बेटी लगेगी कमाने,
मैं उस रोज़ जाऊंगा गंगा नहाने।
नहीं रोक पायेंगे ज़ख़्मी भी शाने,
मैं निकला है बेटी की डोली उठाने।
मैं बेटी के रहता हूं अक्सर सराने,
कहीं कोई ग़म वो लगे ना छुपाने
उसे दूसरों को दिखाने के बदले,
मैं निकला हूं बेटी को लड़के दिखाने।
तो हर बाप मय्यत पे जाऐगा जन्नत,
अगर बेटी आऐगी कांधा लगाने।
ज़माना जो कहता है कहता रहे पर,
समंदर पे जाऐगी बेटी नहाने।
जवां होते ही नाम उसके करूंगा,
मैं बेटी के घर को लगा हूं बनाने।
कि दुल्हन की सूरत में बेटी जो देखी,
तो ख़ुशियों के पाऐ हैं मैंने ख़ज़ाने।
कि बेटा तो निकला बहाने बनाकर,
मगर बेटी आई है माथा दबाने।
मेरा बेटा चाहे पढ़े ना पढ़े पर,
मैं बेटी को अपनी लगा हूं पढ़ाने।
इसी गाओं से उसका रिश्ता करूंगा,
कि बेटी को परदेस दूंगा न जाने।
— अरुण शर्मा साहिबाबादी