वृद्धावस्था
यह जो चेहरे पर रेखाएँ हैं
कलाकृति और चित्रकारी है
स्वतः ही तराशी गईं शिल्पकार की
समाहित हैं शिल्प कई सदी के।
एक-एक लकीरों को करीब से देखना,
हर लकीरों में सुनहरे अक्षरों से गढ़ी
मेरी जीवन की यात्रा है।
किसी में खूब बचपन जिया है,
किसी में जवानी है,
किसी में उदासी है तो
किसी में कल कल नदी की रवानी है।
यह मेरे वृद्धावस्था का प्रमाण नहीं,
इसमें छुपी तारीखें है और तह में अनुभव।
कभी फुर्सत हो तो पढ़ना उन लकीरों को।
कब हंँसी थी पिछली बार,किसने दिल दुखाया था,
किसने हाथ छुड़ाया,किसने कँधा थपथपाया।
कब खिले थे प्रसून, कब गोद भरी थी,
कब थी अकेली ठूँठ सम कब पत्ते हरी थी।
बाँच लेना उर की सारी ही व्यथा
उन लकीरों के बीच की गहराई में
क्या-क्या दफन है कथा।
सबका लेखा-जोखा है इसमें
कब तिस्ता नदी सी चंचल थी,
कब मलयानिल सी शोख
कब हुई नभ सी अनन्त
कब सागर सम गहरी खारी।
तुम्हारे चेहरे की ये लकीरें नहीं
छंद है पद्माकर की
विधान छुपे हैं छंदों के
पढ़ना मढ़ना उर में गढ़ना।
कभी फागुन की मादकता
कभी बयार बासंती की
कभी सावन सी बरसी भी हूँ
कभी पतझड़ की उदासी भी।
कभी मौन भी, गौण भी
कभी कुछ दफन ही रखना
और कभी कभी तू कौन भी।
यह वृद्धावस्था नहीं! है एक सदी।
कहीं पलाश का आगमन है,
तो कहीं गमन है अमलतास का,
कभी गमकी बनकर हरश्रृंगार,
कभी छाई मधु मालती सम,
मौसम आते जाते रहते हैं
पतझड़ का फिर कैसा गम।
तुम भी बिखरना मत कभी
गढ़ जाना अजंता एलोरा की तरह
या बन जाना कालिदास की
खंडकाव्य और महाकाव्य सी।
ये रेखाएं नहीं, एक लिपि हैं।
— सविता सिंह मीरा