किरदार की तरह
हम हो गए हैं नाटक के किरदार की तरह
पढ़ते हैं लोग हमको भी अखबार की तरह
बजती नहीं है तालियां कविता के नाम पर
हास्य को चिपकाया गया इश्तिहार की तरह
आया है अजब दौर ये कविता के मंच पर
जुमले उछाले जा रहे हैं अशआर की तरह
श्रोता हो जाता तरबतर बस चंद पलों में
बरसते हैं चुटकुले यहां बौछार की तरह
कोई नहीं ऐसा कि जिससे गलतियां ना हो
क्यों खुद को मानते हैं गुनहगार की तरह
ज्वालामुखी की सीमा भी जब टूट जाएगी
लावा बहेगा हर जगह गुबार की तरह
हर दौर में हमने कभी काफिर नहीं बक्शे
भारत में पूजे जा रहे हैं अब मज़ार की तरह
लगता है कोई भी यहां पहचानता नहीं
हम क्यों भटक रहे हैं लंबरदार की तरह
बाघिन लगाए घात है खामोश खड़ी है
पिंजरे में हम रखे गए शिकार की तरह
— डॉक्टर इंजीनियर मनोज श्रीवास्तव