कविता

ऐ उम्र

ऐ उम्र, तू क्यों ढलते जाता है?
हर दिन, हर पल तू क्यों बदलते रहता है?
अभी अभी तो बीता मेरा बचपन,
जहाँ मेरा तन- मन था चंचल
फिर तूने मुझे ढकेला जवानी में
जहाँ मेरा वक्त बीता मौज मस्ती रवानी में,
हर दिन बीतता था दिवाली और होली में
फिर अचानक तूने मुझे ढकेला बुढ़ापे की झोली में।
अब तू ही बता ये बुढ़ापा उम्र का कैसा पड़ाव है?
क्या यही जीवन का आखिरी ठहराव है?
ये सोचकर सहम जाता हूँ, दिल पसीज जाता है,
सोचने पे मजबूर हूँ कि आखिर ये बुढ़ापा क्यों आता है।
कितना अच्छा होता कि न तू बदलता और न ये उम्र,
अगर तू रखता अपने कालचक्र पे सब्र।
पर तू तो ठहरा समय,
हम तो पैदा हुए ही है करने अपने उम्र का व्यय।
चलो कोई बात नहीं हर उम्र में तूने बहुत कुछ सीखाया,
जीवन के हर पड़ाव पे तूने तरह तरह के अनुभवों का आईना दिखाया।

— मृदुल शरण