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यमराज मेरा यार (हास्य व्यंग्य काव्य संग्रह )

वैसे तो किसी भी पुस्तक की समीक्षा लिख पाना मेरे लिए अत्यंत दुष्कर कार्य है, फिर भी एक असफल प्रयास अवश्य ही करने की कोशिश कर रही हूँ। सुधीर श्रीवास्तव कृत “यमराज मेरा यार” हास्य व्यंग्य काव्य संग्रह को पढ़कर जो महसूस किया वह बहुत सुंदर , हास्य व्यंग्य से परिपूर्ण, मन को आह्लादित करने वाली और हृदय को प्रभावित करने वाली प्रतीत हुई। पुस्तक का आवरण पृष्ठ विशाल पर्वतों के तल अर्थात् नीचे लाल दहकते लावे के बीच भैंसे पर सवार यमराज का चित्र अंकित है, जिन्होंने अपने एक हाथ में गदा पकड़ी हुई है और एक हाथ में अपना यम अस्त्र । जिन्हें देखकर लग रहा है मानो वह किसी जीव के कालचक्र को पूर्ण करने के पश्चात उसे धरती से लेने के लिए भैंसे पर सवार होकर अपनी यात्रा पर निकल चुके हैं। पुस्तक बिम्बात्मकता, प्रतीकात्मकता के साथ अपने नाम की सार्थकता व्यक्त करने में सक्षम है और पुस्तक के नामकरण की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति भी सार्थकता को प्राप्त करती है। विनम्र , सरल, सहज,मृदुभाषी और बेबाक सत्य बात को उदघाटित करने की प्रवृति और आपका स्वभाव ही कृतिकार को सबसे अलग बनाने के साथ ही आपके अंदर निहित अपनेपन की प्रवृत्ति आपको सबका स्नेहानुरागी बनाती है। आपका स्नेह और आशीर्वाद मुझे ही नहीं हम जैसे निरंतर ऐसे ही प्राप्त होता रहे। पुस्तक के अंदर प्रविष्ट होते ही पुस्तक का नाम “यमराज मेरा यार” (हास्य व्यंग काव्य संग्रह) के कृतिकार ने जहाँ यह संग्रह अपने गुरुदेव , श्रद्धेय स्व. सोमनाथ तिवारी जी को समर्पित करके लिखी गई है। पुस्तक में अगले पृष्ठों में प्रवेश करने पर डॉ रत्नेश्वर सिंह का शुभाशीष, खालिद हुसैन सिद्दीकी का शुभकामना संदेश, संतोष श्रीवास्तव विद्यार्थी का आशीर्वचन है। तत्पश्चात अगले पृष्ठ पर प्रेरक वक्ता तत्वदर्शी डॉ अर्चना श्रेया का वक्तव्य पुस्तक के नाम पर ‘नवआयामी प्रथम कृति यमराज के नाम’ है। तत्पश्चात शुभकामनाएँ एवं शुभाशीष है डॉ पूर्णिमा पाण्डेय पूर्णा जी का । अगले पृष्ठ पर ममता श्रवण अग्रवाल ‘अपराजिता’ जी का शुभाशीष और अगले पृष्ठ पर प्रेमलता रसबिंदु जी का शुभकामना संदेश है। तत्पश्चात निधि बोथरा जैन और डॉ अणिमा श्रीवास्तव जी की स्नेहिल शुभकामनाओं के बाद अगले पृष्ठ पर आकाश श्रीवास्तव की शुभकामनाएँ हैं। अगले पृष्ठ पर संगीता चौबे पंखुड़ी जी का पुस्तक के विषय में अभिमत दिया हुआ है। अगले पृष्ठों में लेखक ने अपने विषय पर “अपनी बात” शीर्षक में अपने विषय में बहुत सारी जानकारी हमसे साझा की है।

पुस्तक की भूमिका में अपनी बात में लेखक ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि विद्यार्थी जीवन से ही अखबार पढ़ने की आदत और किसी रिश्तेदार के द्वारा ” अवतार ” फिल्म को सुनकर मेरे अंदर लेखन का भाव जाग उठा। उन्होंने कहा है कि परिणाम की चिंता छोड़ उन्होंने हमेशा कर्म को स्थान दिया है ,क्योंकि हमारे हाथ में सिर्फ कर्म करना ही है, परिणाम तो ईश्वर की हाथ में है। उन्होंने लिखा है कि जीवन में अनेक उतार चढ़ाव देखे हैं जिनका सामना उन्होंने हौसले के साथ किया है, और उन्होंने कभी हार नहीं मानी है। 1985 में जब लेखक ने इंटरमीडियट की परीक्षा पास की थी तब प्रथम बार स्कूल की वार्षिक पत्रिका में आपकी कहानी पहली बार प्रकाशित हुई थी। उसके बाद 26 जनवरी 1986 को उत्तर प्रदेश के सबसे प्रतिष्ठित दैनिक “स्वतंत्र भारत ” में “गणतंत्र विषय “पर आपकी कविता छपी, जिस पर प्रोत्साहन स्वरूप 20 या 25 रुपए मानदेय भी आपको प्राप्त हुआ। तब से आपका लेखन का सफर निरंतर चल पड़ा। आगे आप लिखते हैं कि प्रतियोगिता दर्पण से 1993 में छपे लेख के लिए 150 रूपये का चेक पारितोषिक स्वरूप प्राप्त हुआ है। यत्र-तत्र मिलने वाली राशि मेरा मनोबल बढ़ाने में विशेष सहायक रही। इस बीच मुझे खालिद हुसैन सिद्दीकी जी, डा. अशोक पाण्डेय ‘गुलशन’ का मार्गदर्शन, प्राप्त होता रहा। सिद्दीकी जी के संपादन में प्रकाशित साझा संग्रह में सह- संपादक की भूमिका निभाने का अवसर भी मिला। जिन दिनों मैं आई. टी. आई. कर रहा था उन दिनों अयोध्या ( तत्कालीन फैज़ाबाद) से प्रकाशित अवध अर्चना साप्ताहिक एवं त्रैमासिक पत्रिका के संपादक / अधिवक्ता / वरिष्ठ कवि साहित्यकार श्री विजय रंजन जी के साथ संपादन कार्य किया। इसके परिणामस्वरूप लेखन में निरंतर सुधार होता गया; समाचार, आलेख और कविताएँ आदि लिखना काफ़ी हद तक सीख गया। पुस्तक समीक्षा लिखने के लिए रंजन जी ने प्रेरित किया और उस समय जब मैं इस विधा में अनुभवहीन था, तब रंजन जी के मार्गदर्शन में लगभग 10 विद्वान रचनाकारों की विभिन्न पुस्तकों की समीक्षाएँ भी लिखीं, जो प्रकाशित भी हुई। एक नाम याद आता है कुँवर कुसुमेश जी के दोहा संग्रह ‘पर्यावरणीय दोहे’ की, जिसकी समीक्षा भी उस समय मैंने लिखी थी। पत्रकारिता में रुझान और पत्रकारिता प्रशिक्षण (पत्राचार) ने भी सीखने की दिशा दी। कुछ अन्य पत्र-पत्रिकाओं से जुड़ने का भी लाभ मिला। इस बीच विविध मंचों से काव्य पाठ का अवसर भी मिला। वैसे भी कवि सम्मेलनों में मैं भागीदारी करता रहा। काव्यपाठ सुनने के लिए मैं यथासंभव यात्राएँ भी करता रहता था। इस बीच एक बार पिताजी ने मेरी रचनाओं की कॉपी अनजाने में रद्दी के साथ बेच दी, वैसे भी मैं अधिकांशतः उनसे दूर ताऊ जी (स्व. रामचन्द्र लाल श्रीवास्तव) के संरक्षण में ही रहा, कुछ दिनों तक मायूस रहने के बाद मैंने फिर से साहित्यिक यात्रा शुरू की, जो लगभग 15 वर्षों तक चली और फिर अचानक ऐसा विराम लगा कि फिर कलम पूरी तरह ठहर गई। जीवन की तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों विसंगतियों के साथ जीवनयात्रा में जीवनयापन की चुनौतियाँ भी जारी रहीं। फिर अचानक 25 मई 2020 को पहली बार पक्षाघात हुआ, छः माह इलाज के बाद लगभग ठीक हुआ। इसी बीच माँ शारदे की विशेष अनुकंपा से मेरी साहित्यिक यात्रा की दूसरी पारी आरंभ हो गई और आभासी माध्यमों ने इसमें बड़ी भूमिका अदा की इसके बाद फिर मुझे पीछे पलटकर नहीं देखना पड़ा। धीरे-धीरे मेरी अपनी अलग पहचान बनने लगी। विभिन्न आभासी साहित्यिक मंचों-पटलों की इसमें बड़ी भूमिका है। अधिक-से-अधिक लोगों से जुड़ने और अनायास ही किसी से भी संवाद की मेरी प्रवृत्ति ने भी मदद किया। लेकिन संयोगवश 12 अक्टूबर 2022 को दूसरी बार पक्षाघात हो गया, जिसका दंश अभी तक सह रहा हूँ। इसके बाद थोड़ा ठिठककर मेरी साहित्यिक यात्रा प्रगतिशील बनी जो अभी भी गतिशील है। मेरी विविध कविताएँ, कहानियाँ, लेख, आलेख, लघुकथा आदि देश- विदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, साझा संकलनों में निरंतर प्रकाशित होती हैं। विभिन्न साहित्यिक मंचों, पत्र पत्रिकाओं से जुड़कर कार्य करने का अवसर मिल रहा है। लोगों से प्यार दुलार, स्नेह आशीर्वाद के साथ बहुतों को मार्गदर्शन देने का अवसर मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है क्योंकि ये मुझे प्रसन्नता का अवसर देती हैं। ईमानदारी से कहूँ तो मैं पक्षाघात को अपने साहित्यिक जीवन के लिए वरदान मानता हूँ।

अपनी दूसरी साहित्यिक यात्रा की मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है, मुझसे जुड़े अनगिनत लोगों से आत्मिक रिश्ते, जिनसे मुझे रिश्तों का जो प्यार दुलार स्नेह आशीर्वाद, मार्गदर्शन और अधिकार प्राप्त हुआ। आज मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि जब अधिसंख्य अपनों ने दूरी बनाने का उपक्रम जारी रखा तब इन आभासी रिश्तों ने मुझे रिश्तों की खुश्बू का अहसास कराया, जीने का हौसला दिया और मेरी चिंता करके मुझे चिंतामुक्त रखने का सतत् प्रयास किया और आज भी कर रहे हैं। आभासी रिश्तों के इस संसार में बड़े बुजुर्गों, वरिष्ठों, पितातुल्य अग्रजों, हमउम्र भाइयों, अनुजों, मातृवत बड़ी-छोटी बहनों और बेटियों का मैं आजीवन ऋणी रहूँगा। सबके नाम लिख पाना संभव नहीं है, क्योंकि यदि सबके नाम लिखूंगा तो एक अलग ग्रंथ बन जायेगा और फिर भी कुछ नाम छूट जाएँगे। वैसे भी हर किसी का मुझे सहयोग, मार्गदर्शन, प्यार- दुलार स्नेह आशीर्वाद और संबल सतत मिल रहा है। मेरे इस वृहद परिवार में 15 वर्ष से लेकर 96 वर्ष तक के सदस्य शामिल हैं। साथ ही थोड़ा लीक से अलग हटकर चलने की मेरी आदत के कारण सामाजिक विडंबनाओं पर मेरी लेखनी चलती है। यमराज विषयक पहली रचना अचानक ही एक रात लिखी, फिर तो यमराज मेरा प्रिय विषय बन गये। बीच-बीच में कुछ आत्मीय शुभचिंतकों ने यमराज पर न लिखने का सुझाव दिया। लेकिन कुछ अलग करने की चाहत में ही मैंने यमराज को अपने पहले काव्य संग्रह का आधार बनाया।सिन्धु ने जब भी खुशी के गीत गाए। हृदय मुक्ता को तटों पर छोड़ आए ।।इन्हीं पंक्तियों के साथ आप सभी से आशा करता हूँ कि मेरी रचनाओं को पढ़कर निष्पक्ष प्रतिक्रिया देने की महती कृपा करेंगे।

इसके बाद अगले पृष्ठ पर अनुक्रमणिका और अंदर रचनाओं के पृष्ठों को देखने से पता चलता है कि, दोहा छंद में लिखी गई “श्री गणेश, भगवान श्री चित्रगुप्त जी, जय सत गुरुदेव और वंदना ” जिसमें ईष्ट देवों गुरुओं और माता सरस्वती की वंदना की गई है और उनसे आशीर्वाद प्राप्ति की प्रार्थना की है । तत्पश्चात यमराज को संबोधित करती हुई विभिन्न हास्य व्यंग परक वार्तालापों को माध्यम बनाकर शीर्षकों में कविताएं लिखीं गईं हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं – “यमराज का ऑफर” यह पांचवीं रचना है, और यह रचना पुस्तक के अंत में भी दोबारा छप गई है।हो सकता है किसी कारण वश छूट गई हो या प्रकाशक का इस ओर ध्यान न गया। इस रचना में उन्होंने यमराज द्वारा दिए गए विशेष ऑफर को ठुकरा दिया जो कि इस मायामयी दुनिया में और रहने का था,उसे ठुकराते हुए वह अपने मित्र यमराज के साथ अपने गृह यमलोक में ही रहना पसंद करते हैं। अगले पृष्ठ पर “यमलोक यात्रा पर जरूर जाऊंगा”, “यमराज का हुड़दंग” यह हास्य उत्पन्न करने वाली रचना है,,”यमराज की नसीहत” जिसमें यमराज ने इस मायामयी दुनिया के लोगों के स्वार्थ और दिखावे का वर्णन करते हुए मानव को कुछ विशेष नसीहते दी है उसी का चित्रण किया गया है। अगले पृष्ठ पर “यमराज का यक्ष प्रश्न” यह हास्य रचना है। जिसमें यमराज ने अपने चेलों द्वारा पूछे गए राम जी के विषय में प्रश्नों का उत्तर जानने हेतु लेखक की नींद में खलल डाल जब वह स्वप्न में अयोध्या भ्रमण कर रहे थे तब आते हैं और उनसे उन प्रश्नों का हल मांगते हैं। वाकई में काफी रोचक रचना है यह । अगले पृष्ठ पर “यमराज का श्राप” हास्य व्यंग रचना है। अगले पृष्ठ पर “रायते का चक्कर”, “कोल्हू का बैल” , “यमराज मेरा यार” जिसमें लेखक ने यमराज को याद करते हुए कहा है कि आज मुझे यमराज की बहुत याद आ रही है, उसकी बक बक (हास्य परक बातें ) की बहुत याद आती है। अगले पृष्ठ पर “यमराज साहित्यिक मंच”, “यमराज की शुभाकामनाएं” जिसमें लेखक के जन्मदिन 01 जुलाई पर यमराज ने विशेष शुभकामनाएं लेखक को दी हैं , जिसमें यमराज काम की अधिक व्यस्तता एवं यमलोक पर इंटरनेट पर प्रतिबंध को मणिपुर हिंसा का असर बता कर स्वयं उपस्थित न हो पाने का हवाला देते हुए अपने किसी प्रिय मित्र के हाथों आत्मीयता के साथ गुलदस्ता भेंट स्वरूप भेजते हैं, रचना में ऐसे ही वार्तालापों का वर्णन किया गया है।

अगले पृष्ठ पर “यमराज की हड़ताल, यमराज काँप उठा, खुला ऑफर, कवि यमराज, यमराज का निमंत्रण, लिखित फरमान, यमराज की स्वप्निल होली, यमराज का एकांतवास, यमराज का दर्द, यमराज की प्रसन्नता, यमराज का श्रद्धाँजलि समारोह, यमराज की धमकी ,यमराज का डर, मैं यमराज का गुरु हो गया, बड़ा नाम होगा, अभी मुर्दा होता हूं,मोदीराज हो, नया अनुभव, ख़ुराफ़ात, मेरा व्यक्तित्व मौत और कवि की खिचड़ी” ये अनेक हास्य व्यंग परक ऐसी रचनाएँ हैं जो पाठकों को इस मायामयी दुनिया की विसंगतियों और छल, कपट, दिखावे और ढोंग और छलावे से लोगों को परिचित कराती हैं। “समय की चाल, गंठबंधन की अंतिम शर्त, रावण का आग्रह ,यमराज की नज़र में रावण,यमराज और रावण दहन,राम की शरण में जाओ,यमराज का प्रश्न, यमराज मेरा मेहमान, यमराज जा निर्जल उपवास, प्राण प्रतिष्ठा और दुष्ट आत्माएँ” लेखक द्वारा लिखित 40 से अधिक ये अनेक रचनाएँ पाठकों के हृदय को गुदगुदाते हुए इस दुनिया की कड़वी और गहन हकीकत से रूबरू कराती हैं।

लेखक सुधीर जी की भाषा सरल, सहज, मधुर एवं बोधगम्य है । अत्यंत स्नेहिल स्वभाव होने के कारण शीघ्र ही आप सबके चहेते और मित्र बन जाते हैं, और अपनेपन के भाव से परिपूर्ण सुधीर जी एक कुशल रचनाकार होने के साथ ही एक अच्छे अनुभवी मार्गदर्शक भी हैं। आपने हमेशा निष्पक्ष होकर लोगों को उनकी रचना या विचार या अभिव्यक्ति के लिए हो उनकी कमियों और अच्छाइयों दोनों को बताया है और मार्गदर्शन किया है। दो तीन बार फोन के माध्यम से मेरी आपसे बातें हुई हैं,लेकिन आपकी बातों और अपनेपन से ऐसा लगा ही नहीं कि हम आभाषी माध्यम से जुड़े हुए लोग हैं। आपका स्नेह और आशीर्वाद ऐसा मिला कि अपनेपन की एक स्नेहिल डोर आपस में जुड़ गई। लेखक द्वारा लिखित यह पुस्तक भाव सौंदर्य और कलात्मक सौंदर्य दोनों दृष्टिकोणों से यह एक अनुपम साहित्यिक धरोहर के रूप में साहित्येतिहास का एक सोपान बन सकेगी।

पुस्तक के अंतिम कवर पेज पर लेखक का संक्षिप्त परिचय , लेखक का फोटो और पुस्तक के प्रकाशन का नाम लोक रंजन प्रकाशन भी लिखा हुआ है और साथ ही एक कोने में आईएसबीएन नंबर है – 978-81-960674-4-1 और उसी के ठीक नीचे पुस्तक का मूल्य लिखा ₹175/- है,जो एक दृष्टि में ही पुस्तक की संपूर्ण झलक प्रस्तुत कर देता है। प्रस्तुत संग्रह बहुत ही सुंदर और सरल, सहज हिंदी भाषा में लिखी गई हैं। आप सभी भी इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें, हास्य व्यंग से परिपूर्ण यमराज के साथ हंसी ठिठोली की अनेक वार्तालापों से पगी हुई यह पुस्तक आप सबको अवश्य ही पसंद आएगी।अशेष शुभकामनाओ सहित…..।

प्रीती द्विवेदी ( प्रीती देवी)

चित्रकूट, उत्तर प्रदेश

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921

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